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________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास गई । राजकन्या ने अपने स्थान जाकर माता से कहा कि चम्पा के पास कांगसी है वह मुझे दिला नहीं तो मैं अन्न जल नहीं लूंगी । रानी ने राजा को कहा और राजा ने रांकाशाह को बुला कर कांगसी मांगी। शंकाशाह ने चम्पा को कहा और बहुत समझाया पर उसने भी हट पकड़ लिया कि मुझे मरना मंजूर है पर कांगसी नहीं दूँगी । अतः रांका ने लाचार होकर राजा को कहा आप आज्ञा दे तो मैं दूसरी कांगसी मँगा कर या नई बना कर सेवा में हाजिर कर सकता हूँ, पर वह कांगसी तो चम्पा देने को इन्कार है । राजा ने कहा कांगसी की कोई बात नहीं है पर मेरी कन्या ने हठ पकड़ लिया है अतः कांगसी तुमको देनी पड़ेगी । शंकाशाह ने कहा कि यही हाल मेरा है । चम्पा ने हट पकड़ लिया है कि मैं कांगसी नहीं दूंगी | आप ही बतलाइये इसका अब मैं क्या करूं ? आखिर में राजा ने जबरदस्ती से अपनी सत्ता द्वारा रांकाशाह एवं चम्पा से कांगसी छीन ली। इस पर रांकाशाह को बहुत गुस्सा आया और उसने काबुल वालों को बहुत द्रव्य देकर उसकी सेना द्वारा वल्लभीनगरी पर धावा करवा के वल्लभी का भंग करवा दिया। बस उस काशाह की सन्तान का कहलाई । इससे यह प्रमाणित होता है कि विक्रम की चौथी शताब्दी पूर्व उपकेशवंशी भारत के कई विभागों में फैले हुए 1 १३ - १४४४ प्रन्थ के कर्त्ता प्रसिद्ध आचार्य हरिभद्रसूरि का समय जैन पट्टावल्यादि ग्रन्थों के आधार पर वि० सं० ५८५ का है पर हरिभद्रसूरि नाम के बहुत आचार्य हो गये हैं, अतः आजकल की शोध से उन १४४४ ग्रन्थों के कर्ता हरिभद्रसूरि का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी का कहा जाता है | आचार्य हरिभद्र के समकालीन आचार्य देवगुप्तसूरि हुये हैं । आचार्य हरिभद्रसूरि आदि आठ आचार्यों ने महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया जिसमें देवगुप्तसूरि भी शामिल थे, यह बात महानिशीय सूत्र के दूसरे अध्ययन के अन्त में लिखी है जैसे: “अचितचिंतामणिकल्पभूयस्स महानिसीहसुयस्कंधस्स पुव्वाई रास असितह चैव खंडिए उहिया एहिं उहि बहवे पतंगा परिसाड़िया तह वि अच्च तसुमच्छाहसयति इमं महानिसीहसूयस्कंध किसि पयणस्स परमाहार भूय, परंततमहच्छति कविउणं पवयणवच्छतेणं बहुभवल संतोवियारिय' च काउतहायआयरिय अठ्याए आयरियहरिभदेण १ जं तत्थायरि से हितं सच्चं समती एसा हिऊणं लिहियंति अन्नेहिपि सिद्धसेण २, बुढवाई ३, जख्खसेण ४, देवगुते ५, जस्सभद्देणंखमासमणसीस रविगुत्त६, सोमचंद ७, जिणदास-गणि खमथ सब्बे मूरिपमुहे हि जुगप्पहाण ८" महानिशीथ पुत्र अ० दूसरा हस्त लिखित प्रति पाने ७२-१ १४ - ओसियों मन्दिर की प्रशस्ति के शिलालेख में उपकेशपुर के पड़िहार राजाओं में वत्सराज की बहुत प्रशंसा लिखी है । जिसका समय वि० सं० ७८३ या ८४ का है। इससे भी यही प्रकट होता है कि उस समय उपकेशपुर की भारी उन्नति थी । अतः आबू के उत्पलदेव पँवार ने श्रोसियों बसाई यह भ्रम भी दूर हो जाता है। कारण बू के पँवार उत्पलदेव का समय विक्रम की दशवीं शताब्दी का है तब आठवीं शताब्दी में उपर्कशपुर अच्छा आबाद था और वत्सराज पड़िहार वहाँ का शासन कर्त्ता था फिर समझ में नहीं आता है कि उत्पलदेव पवार ने कौनसी ओसियां बसाई होगी ? १६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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