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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [वि० पू० ४०० वर्ष १५-वि० सं० ५०८ का एक शिलालेख कोटा राज्यान्तर्गत अटारू नामक ग्राम के एक जैनमन्दिर के भग्न खण्डहरों में प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ मुंशी देवीप्रसादजी जोधपुरवालों की शोध-खोज से मिला था ! मुंशीजी ने उस शिलालेख की ठीक समालोचना करते हुए स्वरचित "राजपूतानाकीशोध-खोज” नामक पुस्तक में लिखा है कि प्रस्तुत शिलालेख में भैंसाशाह के नाम का उल्लेख किया गया है । उस भैंसाशाह के लिए मुन्शीजी ने लिखा है कि भैंसाशाह के और रोड़ा बिनजारा के आपस में व्यापारिक सम्बन्ध इतना घनिष्ट था कि जिसको चिरस्थायी बनाने के लिए उन दोनों ने अपने नाम से एक ग्राम आबाद किया जिसका नाम भैंसरोड़ा...भैंसरोड़ा अर्थात् भैंसाशाह का नाम और रोड़ा बिनजारा का नाम । प्रस्तुत भैंसरोड़ा ग्राम मेवाड़ इलाके में आज भी विद्यमान है । इस लेख से यह पाया जाता है कि विक्रम की पांचवी शताब्दी पूर्व उपकेशवंश अनेक नगरों में खूब ही फला फूला और वृद्धि पाया हुआ था। जब हेमवन्त पट्टावलीकार दूसरी शताब्दी में मथुरा निवासी ओसवंश शिरोमणि श्रावक पोलाक का उल्लेख करते हैं तथा वि० सं० २२२ में श्राभा नगरी में धनकुबेर जगाशाह सेठ बसता था उस पर क्यों नहीं विश्वास किया जाय ? तथा विक्रमपूर्व ९७ वर्षे उपकेशपुर में महावीर स्नात्र समय १८ गोत्र के भावुकों ने स्नात्रीय बन कर पूजा पढ़ाई थी इसमें शंका ही क्यों हो सकती है। पूर्वोक्त सब प्रमाण हमारी पट्टावलियों में लिखा हुआ ओसवंश उत्पत्ति का समय वि० सं० पूर्व ४०० वर्षों को प्रमाणित करता है । १६ - पुरातत्व की शोधखोज से अनेक पदार्थ ऐसेभी मिलते हैं जो इतिहास क्षेत्र पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। कुछ अर्सा पहले पूर्व प्रदेश की भूमि खोदने का काम करते समय एक मूर्ति मिली है जिस पर कुछ भाग खंडित शिलालेख भी है उसमें सं० १८४ (८४) और श्रीवंश अक्षर स्पष्ट दिखाई देते हैं जिसकी समालोचना'श्वेताम्बर जैन ' अखबार में जो आागरे से प्रकाशित होता है की गई थी। जब हम श्रीवंश ज्ञाति की ओर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि यह ज्ञाति उपकेशवंश की ही होनी चाहिये। कारण, इसी जाति का एक शिलालेख विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का मिलता है। इनके अलावा वंशावलियों में भी श्रीवंश ज्ञाति के यत्र तत्र प्रमाण मिलते हैं । यदि हमारी धारणा ठीक है और श्रीवंश ज्ञाति उपकेशवंश की ही ज्ञाति हो तो कोई कारण नहीं कि हम उपकेश वंश को वीरात् ७० वर्षे मानने में किसी प्रकार की शंका करें, क्योंकि वि० सं० पूर्व ९७ वर्ष में तो उपकेशवंश के १८ गोत्रों का पता मिलता है और वे गोत्र उस समय के पूर्व बन चुके थे । जब वीरात् ७० वर्षों में इस वंश की उत्पत्ति हुई हो तो १८४ वर्षों में गोत्रों का नाम संस्करण हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । १७ - महावीर निर्वाण से ८४ वर्ष का एक शिलालेख पं० गौरीशंकरजी श्रोफा की शोध-खोज से वर्ली ग्राम से मिला है वह लेख एक पत्थर खण्ड पर खुदा हुआ है और अजमेर के अजायबघर में सुरक्षित है । शिलालेख खंडित है । अतः यह निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता है कि यह शिलालेख इतना ही था या इसके पूर्व उत्तर विभाग में और भी कुछ लिखा हुआ था जो प्रस्तुत लेख के साथ सम्बन्ध रखता हो । * संवत् १५३० वर्षे माघशुद्धि १३ खौ श्री श्रीवंशे श्रे० देवा० भा० पाचु पु० ० हापा भा० पुहती पु० श्रे महिराज सुश्रावकेण भा० मातरसहितेनपितृ श्रेयसे श्रीअंचलगच्छेश जयकेशरीसूरिणामुपदेशेन श्री सुमतिनाथ बिंबं कारितं प्र० श्री संघेन" । " बा० पू० ना० लेखांक ६६४" Jain Education International For Private & Personal Use Only १६५ary.org www.j
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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