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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] इसमें शाह गोशल के पुत्र देसल का ही यहाँ वर्णन किया जाता है । उपकेशवंशीय वेसट I वरदेव जिनदेव | नागेन्द्र सलक्षण ( पालनपुर गया) आजड़ गोसल देसल ( पाटा गया) T समर सिंह Jain Education Irnational [वि० पू० ४०० वर्ष श्रष्टि शाहदेसल बड़ा ही भाग्यशाली धर्मात्मा एवं उदार था आप अपने जीवन में १४ बार तीर्थों की यात्रा निमित्त संघ निकाले जिस में आपने १४ करोड़ रुपये खर्चकिये तथा वि० सं० १३६९ में अलाउद्दीन खिलजी ने धर्मान्धता के कारण पुनीत तीर्थ श्री शत्रुंजय का उच्छेद कर दिया था जिसका उद्धार कराना उस समय एक टेढ़ी खीर समझी जाती थी क्यों कि उस समय मुसलमानों के श्रस्य । चार ने भारत में त्राहि २ मचा दी थी, परन्तु उपकेशगच्छाधिपति गुरुचक्रवर्ती आचार्य सिद्धसूरि के उपदेश से श्रष्टिवर्य देसल एवं आपके पुत्ररत्न तिलंग देश के स्वामी स्वनामधन्य समरसिंह ने दो वर्षों के अन्दर अन्दर शत्रुंजय तीर्थ को पुनः स्वर्ग सदृश्य बना कर वि० सं० १३७१ माघशुक्ल १४ सोमवार पुष्य नक्षत्र के शुभमूहूर्त में उपकेश गच्छाधिपति गुरुचक्रवर्ति श्राचार्य सिद्धसूरि के कर कमलों से प्रतिष्ठा कराई इस विषय के लिये उसी समय कई प्रन्थ निर्माण हुये थे जैसे वि० सं० १३०१ माघशुक्ल १४ को प्रतिष्ठा हुई संवत् १३७१ चैतबदी ७ के दिन निर्वृतिगच्छ के आचार्य श्राम्रदेवसूरी ने "समररा सुनामक" रास की रचना की तथा वि० सं० १३९३ में श्राचार्य कक्कसूरि ने नाभिनंदन जिनोद्धार नामक ग्रंथ निर्माण किया जिन्होंने अपने हाथों से इस प्रतिष्ठा का करने योग्य सब कार्य सम्पादन किया था । अतः दोनों ग्रंथों को ऐतिहासिक ग्रंथ कहा जा सकता है । लक्ष्य नाभिनंदन जिनोद्धार ग्रंथ शत्रुंजय तीर्थ का पंद्रहवां उद्धार को ही में रख कर लिखा गया है और समरसिंह के पूर्वजों का संक्षिप्त परिचय शाल्हाशाद के लिये ग्रंथकार ने श्रष्टवर्य वेसट से ही परिचय करवाया है परंतु वेसट के पूर्वज उपकेशपुर में कब से बसते होंगे इन के लिये यह कहना अतिशययुक्ति न होगा कि वि० पू० ४०० वर्ष सूर्यवंशी महाराजा उपलदेव को श्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने जैनधर्म में दिक्षित किया उसी उपलदेव की वंश-परम्परा वेट के पूर्वज उपकेशपुर में रहते आये होंगे। जब हम वंशावलियों की ओर देखते हैं तो विक्रम की सातवीं शताब्दी से श्रेष्ठवर्य रघुवीर हुआ उसकी परम्परा में ही वेसट हुआ है जिसको हम इसी ग्रंथ में यथास्थान लिखेंगे। यहां तो केवल ऐतिहासिक प्रमाण को लक्ष्य में रख कर श्रेष्टि वेसटका उदाहरण दिया है कि श्र ेष्ठिवर्य वेसट के समय उपकेशपुर और किराटकूप नगर उपकेशवंशियों से किस प्रकार आबाद एवं फलाफूला था और न विशाल संख्यक लोगों के नगरांतर होने के कारण यह वंश कितना प्राचीन समझा जाता है । *श्रीदेशलः सुकृत पेसल वित्त कोटी | चंचच्चतुर्द्दश जगज्जनितावदातः शत्रुंजय प्रमुख विश्रुत सप्त तीर्थ: । यात्रा चतुर्दश चकार महमहेन ॥ उपगच्छ पट्टावली १९२२ +श्रीविक्रमादुडुपवाजि कृशानुसोम संवत्सरे १३७९ तपसि मासि चतुर्दशेऽह्नि । सुमेध पक्षशशाङ्कवारे, लग्ने झपे च बलशालिनि वर्तमाने || 'नाभिन्न्न जिलोदर पृष्ट १६८ For Private & Personal Use Only www६ Porary.org.
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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