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________________ वि० पू० ४०० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उज्ज्वल कीर्ति का प्रकाश विश्व में चारों ओर इतना फैल गया था कि चन्द्र के उदय न होने पर भी रात्रि विकासी कमल सदा के लिए विकसित रहने लगे। स्वयं चन्द्रमा अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्य और सौम्यता से भी श्रेष्ट की बराबरी नहीं कर सकता था लक्ष्मी में तो आप की वराबरी कुबेर भी नहीं कर सकता था क्योंकि कुबेर में पिशाचपना था वह श्रेष्टि में नहीं था । अतः श्रेष्टि के सर्वगुण अलौकिक थे जिस किसी ने एक वार आपके गुणों का दर्शन मात्र कर लिया उसका हृदय दूसरों के अनुराग से सहज ही मुक्त हो जाता था । में ऐसे अलौकिक पुरुष की कीर्त्ति एक स्थान स्थिर होजाय यह कुदरत को मंजूर नहीं था, अतः उस नगर के असरों के साथ श्रेष्टि का मतभेद हो गया। इस हालत में श्रेष्टि ने विचार किया कि जहाँ रहने पर अपने या दूसरों के कर्मबंध का कारण हो वहाँ रहने क्या फायदा है । अतः श्रष्टि वेसट अपना धनमाल स्टोक गाड़ों में डाल कर तथा आप सकुटम्ब एक रथ में बैठ कर उपकेशपुर से प्रस्थान कर गया। परन्तु भाग्यशाली जहाँ जाता है वहाँ सब सामग्री अनुकूल मिल ही जाती है। चलते समय सेठजी को अच्छे अच्छे शकुन और कई प्रकार के शुभनिमित स्वतः मिल आये क्रमशः चलते हुये किराटकूप नगर के उद्यान तक पहुँच गये । प्रन्थकार ने किराटकूप नगर का थोड़ा सा वर्णन इस प्रकार किया है। कीटकूपनगर बड़ा ही सुंदर था और चारों ओर मंदिरों पर ध्वजायें इस कदर फहरा रहीथी कि मानो मुसाफिरों के मनको मन्दिरों की ओर आकर्षित कर रही हैं। स्वच्छजल से भरी हुई वापियों के अन्दर राजहंसादिक पक्षियों के मधुर शब्द मानों फिरते घूमते मुसाफिरों को वापियों की सुन्दरता और जल की स्वच्छता ही बतला रहे थे जिन मन्दिरों में सुगन्धि धूप इतना हो रहा था कि जिस के धुयें से आकाश मानों वर्षा ऋतु के बादलों की तरह श्यामवर्ण का मालूम होता था । अन्य २ देशों के अनेक सार्थवाह - व्यापारी एवं बनजारे नगर के समीप विश्रान्ति लेते थे इत्यादि नगर की आबादी सुन्दरता और आरोग्यवर्द्धक जलवायु देखकर श्रेष्टि वेसट का दिल ललचा गया कि मैं इसी नगर में निवास कर दूं । उस नगर में पँवार वंश विभूषण महाबुद्धिवान प्रजापालक 'जैत्रसिंह' नाम का राजा राज करता था जिसने अपने पराक्रम से तमाम शत्रुओं को अपने अधिकार में कर लिया यही कारण था कि उसकी धवल कीर्त्ति चारों ओर फैली हुई थी । श्रष्टिवर्य बेसट बहुमूल्य रत्नों की भेंट लेकर राजा के पास जाते हैं और राजा श्रेष्टिको ने का कारण पूछता है जब श्र ेष्टी ने अपना हाल सुनाया तो राजा खुश होकर सेठ को अपने नगर मे रहने की अति आग्रह से आमंत्रण करता है । कहा भी है कि 'भाग्यशाली जहाँ जाता है वहाँ सब ऋद्धि सिद्धियें तैयार रहती हैं' । राजा और श्रष्टि का वार्त्तालाप हो रहा था इतने में दरबान आकर अर्ज कर रह है कि दरवाजे पर सुहाजनसंघ आया है और आप से मिलना चाहता है । राजा ने आज्ञा दे दी और महाजनसंघ राजा के पास आकर प्रार्थना की कि हमारे मन्दिरों में अठाई महोत्सव शुरू हुआ है। जिसका आज वरघोड़ा है अतः जीवदया के लिये उद्घोषना होजानी चाहिये कि राजभर में कोई जीव न मारने पवे | इस पर राजा ने कहा कि यह तुम्हारा क्या धर्म है कि हरएक काम में तुम लोग इस प्रकार की प्रार्थना किया करते हो ? इस पर पास में बैठा हुआ श्रेष्टिवर्य वेसट ने राजा को इस प्रकार का उपदेश दिया कि वह दया अहिंसा के सच्चे स्वरूप को समझ कर हिंसा त्याग कर अहिंसा भगवती का परम उपासक बन गया और श्रष्टि ने किराटकूप को अपना निवास स्थान बना लिया । श्रष्टि वेसट का वंश-वृक्ष ग्रन्थकार ने इस प्रकार लिखा है । १६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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