SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य स्वयंप्रभसूरि का जीवन ] [वि० पू० ४७० वर्ष कायों में सरिजी पक्के अनुभवी और सिद्ध हस्त थे । आपके कहने की शैली इतनी उत्तम प्रकार की थी कि कठोर से कठोर हृदय वाले निर्दयी भी आपका उपदेश सुनने से रहमदिल बन जाते थे । कुछ होनहार भी बाह का उन्मूल था । सूरिजी तो मात्र एक निमित्त कारण ही थे, अतः श्रापके उपदेश का प्रभाव उपस्थित लोगों पर इस कदर हुआ कि राजा प्रजा करीब ४५००० घर वालों ने उस निष्ठुर कर्म का त्याग कर सूरि श्री के चरण कमलों में जैनधर्म को स्वीकार कर लिया और अहिंसा भगवती के उपासक बन यये। , ___सूरिजी ने यहाँ पर मासकल्पादि ठहर कर उनको जैनधर्म के आचार व्यवहारादि का ज्ञान करवाना और वहाँ पर एक शान्तिनाथ के मन्दिर बनाने का निश्चय करवाया । इस प्रकार सूरिजी ने आबुदाचल से भीमाल नगर तक घूम घूम कर लाखों मनुष्यों को मांस मदिरादि दुर्व्यसन छुड़वा कर जैनधर्म का उपासक मनाया और उनके श्रात्म-कल्याण के लिये मेदनी जिनमन्दिरों से मण्डित करवा दी । सूरिजी की अध्यषता में तीर्थ यात्रार्थ कई संघ निकाल कर भावुकों ने यात्रा कर अपने अहोभाग्य समझे इत्यादि जैन धर्म का खूब प्रचार किया तथा अनेक जैनेतरों को जैनधर्म की दीक्षा देकर शासन की अपूर्व सेवा की। आचार्य श्री स्वयंप्रभसूरि ने अपने पवित्र कर-कमलों से अनेक नर नारियों को दीक्षा देकर जैन श्रमण संघ की आशातीत वृद्धि की थी पर एक महत्त्वपूर्ण दीक्षा आपके कर कमलों से ऐसी हुई कि वह चिरस्थाई बन गई थी । जिनका नाम था मुनि रत्नचूड़ । मुनिरत्नचूड़ का पवित्र एवं चमत्कारपूर्ण जीवन हम आगे चल कर आचार्य रत्नप्रभसूरि के माम से लिखेंगे जिसको पढ़ कर पाठक मंत्रमुग्ध बन जायंगे कि आत्मकल्याण एवं जैनधर्म के प्रचारक महात्माओं ने किस प्रकार संसार की ऋद्धि को असार समझ कर त्याग किया है और ऐसे त्यागी महात्माओं का जीवन जगत के जीवों के लिए कैसे उपकारी बन जाता है इत्यादि। आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने अपने उपकारी जीवन में जैनशासन की बड़ी भारी कीमती सेवा बजाई। जिन प्रदेशों में जैनधर्म का नाम तक भी लोग नहीं जानते थे वहाँ हजारों कठिनाइयों को सहन कर जैनधर्म का बीज बो कर अपनी ही जिन्दगी में फला फूला देखना यह कोई साधारण बात नहीं है । जिन माँसाहारियों को सूरीश्वरजी ने जैनधर्म के परमोपासक बनाये थे वे आगे चल कर नगर के नाम से श्रीमाली एवं प्राग्वट कहलाये और उन लोगों ने तथा उनकी सन्तान परम्परा के अनेक दानी मानी उदार नररत्नों ने शासन की बढ़िया से बढ़िया सेवा की है जिसको मैं अगले पृष्ठ पर लिखूगा। आज जो श्रीमाल और पोरवाल लोग सुखपूर्वक जैनधर्म को आराधन कर आत्म-कल्याण कर रहे हैं यह सब उन महान् उपकारी आचार्य स्वयंप्रभसूरीश्वरजी के अनुग्रह का ही सुन्दर फल है। ___ पर दुख इस बात का है कि जिनके पूर्वजों को मांस मदिरा छुड़वा कर जैनधर्म में दीक्षित किये थे वे श्रीमाल एवं पोरवाल आज उन परमोपकारी का नाम तक भूल कर कृतघ्नी बन गये हैं शायद उन लोगों के पतन का कारण ही यह कृतघ्नीपन तो न हो ? आचार्य स्वयंप्रभसूरि के समय भगवान महावीर के पट्टधर गणधर सौधर्माचार्य तथा सौधर्म गणभर के पट्टधर आचार्य जम्बु हुए थे । 'जनके जीवन का विस्तार से वर्णन जैनशास्त्रों में किया है पर मैं अपने उद्देशानुसार यहां संक्षिप्त से लिख देता हूँ। गणधर सौधर्माचार्य-इस भारत भूमि पर एक कोल्लग नाम का सुन्दर एवं रम्य सनिवेश था जिसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jandibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy