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________________ वि० पू० ४७० वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अन्दर धम्मिल नाम का ब्राह्मण अपनी भहिला नाम की पत्नी के साथ रहता था। वे धन धान्य से पूर्ण और सुख शान्ति में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे । उस ब्राह्मण के प्रबल पुन्योदय एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ जिसका नाम सुधर्म रक्खा गया था जो कि यथा नामस्तथागुण था । माता पिता ने कई महोत्सवों के साथ उसका लालन पालन किया और बाल भाव व्यतीत होने पर उसको विद्याध्ययन के लिये अध्यापक गुरु की सेवा में भेज दिया। यों तो ब्राह्मणों के लिए विद्या हमेशा के लिए वरदायी हुआ ही करती है पर आप पर विशेष कृपा थी पहिले जमाने में विद्याध्ययन में विशेष समय खर्च कर दिया जाता था और प्राय: कर के ब्राह्मण लोग चार वेद छः शास्त्र अठारह पुराण और इतिहास आदि ग्रंथों का पठन पाठन कर लिया करते थे तदनुसार धर्म नाम का विद्यार्थी भी तमाम शास्त्रों का अध्ययन एवं चौदह विद्या के पारंगत हो गये । इनके अलावा आपने यज्ञाध्यक्ष पद को भी प्राप्त कर लिया था और इस कार्य में करीबन ५० वर्ष भी व्यतीत कर दिये थे । एक समय मद्यपापा नगरी के अन्दर सौमल नाम के ब्राह्मण ने एक वृहद् यज्ञ करना प्रारम्भ किया जिसमें अन्य अन्य पंडितों के साथ सुधर्म नाम के पंडित भी शामिल थे। इधर जब भगवान महावीर को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ तब देवरचित समवसरण में विराजमान हो कर धर्मदेशना देना प्रारम्भ किया तो उस समय भिन्न २ विचार वाले इन्द्रभूति आदि पंडित भगवान के समीप आकर अपनी शंकाओं को दूर कर भगवान के शिष्य बन गये जिसका वर्णन आवश्यक सूत्र एवं कल्पसूत्र में विस्तार से किया है जिसमें सुधर्म पंडित भी एक था । उसके दिल में यह शंका थी कि मनुष्यादि सर्व जीव जैसे इस भव में हैं वैसे ही अगले जन्म में होते हैं ? या मनुष्य मर कर पशु आदि योनि को प्राप्त होते हैं, जैसे वेद की श्रुतियों में लिखा है कि:पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशव: पशुत्वंइत्यादिनि । भावार्थ यह है कि जैसे इस जन्म में पुरुष स्त्री आदि हैं वैसे ही पुनर्जन्म में होंगे या इनसे विरुद्ध । शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यत इत्यादि इन सब श्रुतियों का भगवान ने यथार्थ अर्थ समझा कर उनके भ्रम को दूर हटा दिया, अतः सुधर्म पंडित ने सच्चे तत्वों की ठीक परीक्षा कर के आत्म-कल्याण की उत्कृष्ट भावना से अपने ५०० शिष्यों के साथ भगवान महावीर प्रभु के चरण कमलों में दीक्षा धारण कर ली और ३० वर्ष तक भगवान के चरणों की सेवा की, तत्पश्चात् भगवान के पट्टधर बन १२ वर्ष छदमस्थ अवस्था में द्वादशांगी के पारंगसपने में शासन को सुचारु रूप से चला कर जैनधर्म का प्रचार एवं उन्नति की। जब आप को केवलज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न हुआ, फिर भी आठ वर्ष तक भूमंडल पर विहार कर अनेक भव्य प्राणियों का उद्धार किया । अन्त में आप अपने पट्टधर जम्बूस्वामी को स्थापन कर मोक्ष पधार गये । ये महावीर के प्रथम पाट धर्म गणधर हुये । अब आगे जम्बू स्वामी के लिये भी संक्षिप्त से लिख दिया जाता है । भगवान महावीर स्वामी के दूसरे पट्टधर श्राचार्य जम्बू स्वामी बड़े प्रभावशाली आचार्य हुए। आपका जन्म मगधदेश के अन्तर्गत राजगृहनगर के निवासी कश्यप गोत्रीय ( उत्तम क्षत्रिय) छनर्वै करोड़ सुवर्ण मुद्रिकापति श्रेष्ट ऋषभदत्त की हरितन गोत्रीय भार्यो धारणी के कुक्षि से हुआ था। जब ये गर्भ में थे तो इनकी माग को जम्बू सुदर्शन वृक्ष का स्वप्न आया था। ये पंचम ब्रह्मदेवलोक से चल के अवतीर्ण | जब ये गर्भ में थे तो इनकी माता को कई-कई पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हुई थी । हुए थे ऋषभदत्त ने बहुत हर्षोत्साह से धारणी के इष्ट वस्तुओं द्वारा मनोरथ पूर्ण किए । शुभ घड़ी में आपका जन्म Jain EducaInternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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