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आचार्य स्वयंप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४७० वर्षे
हुआ था । जन्मोत्सव बड़े धूम-धाम से किया गया । स्वप्न के अनुकूल आपका नाम जम्बुकुमार रक्खा गया । आपने अपनी बाल्यावस्था खेलते-कूदते बहुत प्रसन्नता पूर्वक बिताई । आपने शिक्षा ग्रहण करने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रक्खी । आप बहोतर कला विज्ञ थे । जब आप विद्या पढ़ कर धुरन्धर कोटि के विद्वान हुए तो माता पिता ने इन्हीं के सदृश्य गुणों वाली विदुषी रूपवती देवकन्या सदृश्य पाठ कुलीन लड़कियों से श्रापका विवाह कराना उचित समझा और वाक्दान ( सगाई ) का भी निश्चय हो गया।
इधर भगवान सौधर्माचार्य विचरते हुए राजगृह नगरी की ओर पधारे। आप अपने शिष्यों के साथ गुण शिलोद्यान नामक रमणीक स्थान में पधार गये। नगर के सारे लोग सूरिराज का दर्शन करने को आतुरता से उद्यान में आकर अपने जीवन को सफल बनाने लगे। ऋषभदत्त भी धारणी और जम्बुकुमार सहित सूरीश्वरजी की सेवा में दर्शनार्थ श्रा उपस्थित हुआ। आचार्यश्री ने धर्मोपदेश करते हुए बड़ी खूबी से प्रमाणित किया कि संसार असार एवं कष्टप्रद है तथा इस द्वन्द्व को हरने का उपाय दीक्षा लेना है। इसी से मुक्ति का मार्ग मिल सकता है । सच्चे उपदेश का प्रभाव भी खूब पड़ा। जम्बुकुमार के कोमल हृदय पर संसार की असारता अंकित होगई । जम्बुकुंवर ने विचार किया कि पूर्व पुन्योदय से ही इस मानव जीवन का आनन्द मुझे प्राप्त हुआ है। बड़े शोक की बात होगी यदि मैं इस अपूर्व अवसर से लाभ न उठाऊँ ! बार-बार मानव-जीवन मिलना दुर्लभ है । अब देर करके चुप रहना मेरे लिए ठीक नहीं, ऐसा सोच कर उन्होंने निश्चय किया कि आचार्यश्री के पास ही दीक्षा ले लेनी चाहिए। इससे बढ़ कर कल्याण की बात मेरे लिए क्या हो सकती है ? जम्बुकुमार ने आचार्यश्री के पास जाकर अपने मनोगत विचार प्रकट कर दिए । जम्बुकुमार इन्हीं विचार तरंगों में गोता लगाता हुआ नगर को लौट रहा था कि एक बन्दूक की आवाज सुनाई दी । देखता क्या है कि एक गोली पास होकर सरररररर निकल गई । कुँवर बालबाल बच गया। जम्बुकुँवर ने विचार किया कि यदि मैं इस घटना से पंचत्व को प्राप्त होता तो मेरे मनोरथ टूट जाते । अब देर करना भारी भूल है कौन कह सकताहै कि मृत्यु का प्रावे ? उन्होंने सोचा क्षण भर भी व्यर्थ बिताना ठीक नहीं । इस समय मैं क्या कर सकता हूँ ? यह सोचने की देर थी कि तत्काल आत्मनिश्चय हुआ कि मैं आजन्म ब्रह्मचारी रहूँगा । मन ही मन में पूर्ण प्रतिज्ञा कर ली कि मैं सम्यक् प्रकार से जीवनपर्यन्त शीलव्रत रक्खूगा । धन्य ! धन्य ! जम्बुकुमार आतुरता से अपने माता-पिता के पास पहुँचा और उसने अपने निश्चय की बात कह सुनाई और भिक्षा मांगी कि मुझे आज्ञा दीजिये ताकि मैं दीक्षा लेकर अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने में शीघ्र समर्थ होऊँ।
- ऋषभदत्त और धारणी कब चाहती थी कि अद्वितीय पुत्र हमसे दूर हो । पुत्र ने प्रार्थना करने में किसी प्रकार की भी कमी न रक्खी । वैराग्य के रंग में रंगा हुआ कुमार संसार में रहने के समय को भार समझने लगा। पिता ने उत्तर दिया नादान कुमार ! इतने अधीर क्यों होते हो ? अभी तुम्हारी आयु ही क्या है ? हमने तुम्हारा विवाह रूपवती शीलगुण सम्पन्न आठ कन्याओं से कराना निश्चय कर लिया है। अब न करने से सांसारिक व्यवहार में ठीक नहीं लगेगा । यदि तुझे हमारी मान मर्यादा का तनिक भी विचार है तो अपना हठ छोड़ कर हमारी बात मान ले । विवाह करने से आनाकानी मत कर, क्या तूं हमारी इसनी बात तक न मानेगा ? तूं एक आदर्श पुत्र है । हमारी बात मान कर विवाह तो कर ले। जम्बुकुमार दुविधा में पड़ गया। आज्ञाकारी पुत्र ने पिता की बात टालनी नहीं चाही । विवाह करने की हामी भर ली।
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