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________________ वि० पू० ४७० वर्ष [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास है क्योंकि साधुओं का सदैव पाना और रहना मुश्किल है । अतः सूरिजी ने एक दिन व्याख्यान में जैन मन्दिर के लिये उपदेश दिया और कहा कि महानुभाव ! आत्मकल्याण के अन्य २ साधनों में अपने इष्ट देव का मन्दिर एक मुख्य साधन है क्योंकि इसके होने से देव की उपासना सेवा भक्ति हो सकती है, धर्म पर रद श्रद्धा और हमेश के लिये चित्तवृति निर्मल रहती है, पाप करने में घृणा होती है अन्याय एवं अत्याचार उनके हाथों से प्रायः नहीं होता है यदि कुछ अर्सा के लिये साधुओं का आगमन न भी हो तो मन्दिरों के द्वारा अपना आत्मकल्याण कर सकते हैं इत्यादि, बस, फिर तो देरी ही क्या थी ? उन भावुकों ने बड़ी खुशी के साथ स्वीकार कर उसी समय मन्दिर की नींव डाल दी। आचार्यश्री ने वहाँ पर कितने ही समय ठहर कर उन नूतन श्रावकों को जैनधर्म के तात्विक विषय एवं सामायिकादि पूजा विधि और क्रिया विधान का अभ्यास करवाया। एक समय सूरिजी ने यह संवाद सुना कि पद्मावती नगरी में एक वृहद् यज्ञ का आयोजन हो रहा है और वहाँ भी विचारे मूक प्राणियों की बलि दी जायगी, फिर तो था ही क्या ? आपने श्रीमाल नगर के मुख्य श्रावकों को सूचित किया कि मैंने पद्मावती नगरी की ओर जाने का निश्चय किया है । इस हालत में वे श्रावक लोग इस महान लाभ को हाथों से कब जाने देने वाले थे। उन्होंने कहा कि यदि आप पधारें तो हम भी इस कार्य के लिये पद्मावती चलेंगे? ___इधर तो सूरिजी पद्मावती पहुँचे उधर भीमाल नगर के श्रावक भी उपस्थित हो गये । सूरिजी इस कार्य में पहले सफलता पा चुके थे वे बड़े उत्साह से राजसभा में पहुँचे । पर वे यज्ञाध्यक्ष बड़े ही घमंड के साथ कहने लगे कि महात्मन् ! यह श्रीमाल नगर नहीं है कि आपने राजा प्रजा को भ्रम में डाल शास्त्रविहित यज्ञ करना मना करा दिया । पर यहाँ तो है पद्मावती नगरी और वेदानुयायी कट्टर धर्मज्ञ राजा पद्मसैन । श्राप जरा संभल के रहना इत्यादि। - सूरिजी ने कहा विप्रो ! न तो मैं श्रीमाल नगर से कुछ ले आया और न यहाँ से कुछ ले जाना है। मेरा कर्तव्य दुनिया को सन्मार्ग बतलाने का है वही बतलाया जायगा फिर मानने न मानने के लिये जनता स्वतंत्र है इत्यादि सवाल जवाब हुये । इतने में तो बहुत से लोग एकत्र हो गये। सूरिजी ने अपना व्याख्यान शुरू कर दिया ।यह तो आप पहिले ही पढ़ चुके हो कि इस प्रकार केशि नामा तद्विनयो, यः प्रदेशि नरेश्वरम् । प्रबोध्य नास्तिकाद्धर्मा, जैन धर्मेऽध्यरोपयत् ॥१॥ तच्छिष्याः समजायन्त, श्री स्वयंप्रभ सूरयः । विहरन्तः क्रमेणेयुः श्री श्रीमालं कदापि ते ॥ तत्र यज्ञे यज्ञियानां, जीवानां हिंसकं नृपम् । प्रत्यषेधीत्तदा सूरिः, सर्व जीव दया रतः ॥ नवामुत्तगृहस्थानन साधं क्षमापति नतदा । जैन तत्त्वं संप्रदश्य, जैनधर्म न्यवेशयत ॥ पद्मावत्यां नगर्यश्च, यज्ञस्या योजनं श्रुतम् । प्रत्यरौत्सीत्तदा सूरि, गत्वा तत्र महामतिः ॥ राजानं गृहिणश्चैव चत्वारिंशत् सहस्र कान् । बाण सहस्र संख्याथ, चक्रेऽहिंसावतान्नरान् ॥ अतः सूरेश्व शिष्याणां संख्या वै वृद्धितां गता । सुराणां पोषण यैव, एधितेन्दोः कलाइव ॥ न सेहिरे परे तत्र उन्नतिं धार्मिकीं तदा । यथा चान्द्रमसी कान्ति तस्कराध्वान कामिनः ॥ तस्थुस्ते तत्पुरोधाने मास कल्पं मुनीश्वराः । उपास्यमानाः सततं भव्यैर्भव तरुच्छिदे ॥ Jain Educa 8 ternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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