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आचार्य स्वयंप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४७० वर्ष
भी बहुपुत्र हाते हैं । यदि धन धान्य का दूतो वैश्या के भी होता है। अतः यह आशीर्वाद नहीं पर दुराशीष ही हैं। पर जो मैंने आपको धर्मलाभ सही आशीर्वाद दिया है वह त्रिवर्ग साधन रूप आशीर्वाद है क्योंकि जो कुछ मन इच्छित सुख शांति मिलती है वह सब धर्म से ही मिलती है । इतना ही क्यों पर धर्म साधन संसार में जन्म मृत्यु मिटा कर मोक्ष में पहुँचा देता है । अतः हमारा धर्मलाभरूप आशीर्वाद इस भव और परभव में कल्याणकारी है, इत्यादि ।
सूरिजी के मार्मिक वचन सुन कर राजा की अन्तरात्मा में बड़ा ही चमत्कार पैदा हुआ और राजा को विश्वास हो गया कि यह अलौकिक महात्मा है अतः राजा को धर्म का स्वरूप सुनने की जिज्ञासा जागृत हो गई । और प्रार्थना करने लगा कि महात्मन् ! आप कृपा कर यहां पधारे हैं तो कुछ धर्म का स्वरूप तो फरमायें कि जिस धर्म से जनता का कल्याण हो सके। - नगर में यह खबर बिजली की भांति सर्वत्र फैल गई कि आज एक जैन सेवड़ा राजसभा में गया है और वहां कुछ धर्मचर्चा करेगा। चलिये अपन लोग भी सुनेंगे वह क्या कहेगा ? अतः वे लोग भी शीघ्रता से राजसभा में आये और देखते देखते राजसभा खचाखच भरगई। उधर वे यज्ञाध्यक्ष भी सब सुनने को उपस्थित हो गये।
सूरिजी ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा धर्म का स्वरूप कहना प्रारम्भ किया जिसमें अधिक विवेचन हिंसा और अहिंसा की तुलना पर ही किया कि संसार में हिंसा सदृश कोई पाप नहीं और अहिंसा से बढ़ कर कोई धर्म नहीं है इत्यादि अपनी मान्यता को इस प्रकार सिद्ध कर बतलाया कि उपस्थित श्रोताओं के हृदय कमल में अहिंसा ने चिरस्थाई स्थान कर लिया। इस विषय में ज्यों ज्यों वाद विवाद होता गया त्योंत्यों सूरिजी के प्रमाण जनता को अपनी ओर आकर्षित करते गये । आखिर उस निष्ठर यज्ञ की ओर जनता की घृणा और अहिंसा की ओर सद्भाव बढ़ता गया। फलस्वरूप राजा जयसेन उनके मंत्री और नागरिक लोगों के ९०००० घर वालों को सूरिजी ने जैनधर्म की दीक्षा-शिक्षा देकर उन्हें जैनधर्म का अनुयायी बनाया।
जिस यज्ञ के लिये लाखों मूक प्राणियों को एकत्र किया गया था उन सब को अभय दान दिला कर छुड़वा दिया और यज्ञ करना भी बंद करवा दिया । फिर तो था ही क्या ? श्रीमाल नगर में जैनधर्म और सूरिजी की घर २ में मुक्त-कण्ठ से भूरि भूरि प्रशंसा होने लगी।
जब कि श्रीमाल नगर के राजा प्रजा जैन बन गये तो अब सूरिजी के प्रति उनको भक्ति का पार नहीं रहा । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता रहा और जैनधर्म का सत्य स्वरूप सुन कर लोगों की श्रद्धा जैनधर्म प्रति खूब मजबूत हो गई। सूरिजी ने सोचा कि यहाँ पर एक जैन मन्दिर बन जाना अच्छा
जैनों की ओर से उत्तरनो ज्ञानं नैव सत्यं न च सुगुण धरो नैव तत्त्वादि चिंता । नाहिंसा प्राणी वर्गे न तु विमल मनं केवलं तुंद भर्ति ।। रात्रि भोजी च नित्य पयसी जलचरा जीव घाते कृतांता । रे रे पाखण्ड विप्र कथयत भवताँ कीदृशे यज्ञधर्माः ।।
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