________________
वि० पू० २८८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
प्रायश्चित श्राता है । इस पर भदबाहु समझ गये और कहा कि मैं दृष्टिवाद पढ़ाने से इन्कार नहीं करता हूँ पर इस समय मेरे महाप्राण योग चल रहा है मैं मगध में तो नहीं चल सकता हाँ यदि मेरे पास कोई मुनि तो मैं उनको पढ़ा सकता हूँ । इस पर वे मुनि पुनः मगध में श्राये और श्रीसंघ को भद्रबाहु के समाचार सुना दिये । इस पर स्थूलभद्रादि ५०० साधु नैपाल में गये और भद्रबाहु से दृष्टिवाद अंग का अध्ययन प्रारम्भ किया परन्तु भद्रबाहु को अपने योग के कारण समय बहुत कम मिलता था । जो समय मिलता उसी में ५०० साधुत्रों को अध्ययन कराया करते थे । अतः स्वाभाविक है कि वाचना बहुत कम मिलती थी । वाचना कम मिलने के कारण बहुत से साधुओं ने सोचा कि दृष्टिवाद अंग तो एक महान् समुद्र सदृश है । इस प्रकार वाचना मिलने से यह कब समाप्त होगा ? अतः वे निराश हो पढ़ना बन्द कर वहाँ से चले गये केवल एक स्थलिभद्र ही उनके पास रह कर जितना ज्ञान मिलता उसे पढ़ते रहे। इस प्रकार पढ़ते २ कई दशवां पूर्व की वाचना चलती थी तो एक दिन स्थलिभद्र ने विनय के साथ भद्रबाहु से पूछा कि भगवान् ! अब दृष्टिवाद कितना शेष रहा है ? भद्रबाहु ने कहा स्थलिभद्र अभी तो सरसव जितना पढ़ा है और मेरु जितना शेष रहा है । फिर भी स्थुलिभद्र हतोत्साही न होकर अभ्यास करते ही रहे आचार्य भद्रबाहु अपना योग समाप्त कर पुनः मगध की ओर पधार गये ।
स्थूलभद्र की सात बहिनों ने भी दीक्षा ली थी । जब भद्रबाहु के साथ अपना भाई स्थूलभद्र आया सुना तो वे वन्दन करने को गई । भद्रबाहु को वन्दन कर पूछा कि हमारा भाई मुनि स्थूलिभद्र कहां है ? हम उनको वन्दन करेंगे । भद्रबाहु ने इशारा किया कि उस तरफ है जाओ वन्दन कर आओ । जब साध्वियें वन्दन करने को स्थलिभद्र के पास जाती हैं तो स्थलिभद्र अपने ज्ञान का प्रभाव बतलाने को एक सिंह X का रूप धारण कर बैठ जाता है। जब साध्वियाँ वहाँ आई तो स्थलिभद्र को न देखा पर वहाँ एक सिंह बैठा देखा तो पुनः भद्रबाहु के पास आई और वहाँ का हाल कहा इस पर भद्रबाहु ने कहा जाओ अब तुमको स्थूलभद्र मिल जायगा । साध्वियां पुनः गई तो स्थुलिभद्र असली रूप में बैठा पाया फिर वन्दन किया और सिंह के विषय में पूछा तो स्थुलिभद्र ने कहा कि यह ज्ञान का ही प्रभाव था ।
भद्रबाहु ने सोचा कि स्थलिभद्र को ज्ञान पाचन नहीं हुआ है । जब स्थलिभद्र जैसे का ही यह हाल है तो दूसरों का तो कहना ही क्या है भविष्य में इस ज्ञान का दुरुपयोग न हो ? श्रतः उन्होंने वाचना देनी बन्द कर दी । स्थुलिभद्र ने अपनी भूल स्वीकार की और भविष्य के लिये प्रतिज्ञा कर ली कि अब कभी ऐसा न करूंगा । साथ में श्रीसंघ ने भी बहुत आग्रह किया कि यह पहिली भूल है इसको क्षमा कर आप स्थलिभद्र को वाचना दिरावे । अतः संघ आग्रह से चार पूर्व मूल पढ़ाया एवं स्थलिभद्र १० पूर्व
४ पूर्व मूल मिला कर १४ पूर्व के ज्ञाता हुये ।
भद्रबाहु के पूर्व प्राय: जैनश्रमण जंगलों में ब नगर के नजदीक उद्यानों में रह कर आत्मकल्याण करते थे पर जव १२ वर्षीय महा भयंकर दुष्काल के अन्दर साधुओं का जंगल में निर्वाह नहीं होता देखा तो शायद श्रीसंघ ने द्रव्य क्षेत्र काल भाव देख कर उस विकट समय के लिए प्रार्थना की होगी कि इस X दृष्ट्वा सिंहं तु भीतास्ताः सूरिमेत्य व्यजिज्ञपन् । ज्येष्ठार्यं जग्रसे सिंह स्तत्रसोऽद्यापि तिष्ठति ॥
आचार्य हेमचन्द्रसूरिकृत परिशिष्ठ पर्व पृष्ठ ८६
Jain Educationational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org