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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
___ जब दुष्काल के बुरे असर से साधुओं का निर्वाह नहीं होता देखा तो अपने ५०० साधुकों को साथ ले कर आचार्य हेमचन्द्रसूरि के मत से समुद्रतट एवं नेपाल तथा आवश्यक चूर्णी व पट्टावलियों के मत से नैपाल की ओर चले गये । शेष साधु जो पूर्व में रहे थे उनमें से कई एकों ने तो अनशन व्रत करके स्वर्ग की ओर कूच किया और कई साधुओं ने ज्यों त्यों कर अकालरूपी अटवी का उल्लंघन किया । उस दुष्काल की भयंकरता ने जैनश्रमण संघ पर इतना बुरा प्रभाव डाला कि उनको आगम भी विस्मृत होगये । जब पुनः सुकाल हुआ तो उन श्रमणों ने पाटलीपुत्र में एक सभा की * उसमें जिस २ मुनि को जो २ ज्ञान याद था उसको एकत्र कर ११ अंगों की तो शृखला ठीक कर ली परन्तु बारह वाँ अंग किसी को भी याद नहीं रहा । इस हालत में संघ ने सोचा कि बारहवाँ अंग आचार्य भद्रबाहु को याद है । उनको बुला कर योग्य साधुओं को अध्ययन करवाना चाहिए नहीं तो बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छेद हो जायगा । अतः भद्रबाहु को बुलाने के लिए मुनियों को नेपाल भेजा । वे मुनी नैपाल गये और भद्रबाहु के पास जा कर बन्दना की और श्री संघ का संदेश सुना दिया इस पर भद्रबाहु ने कहा कि इस समय मैं महाप्राण योग कर रहा हूँ अतः मैं चल नहीं सकता हूँ। मुनियों ने कहा कि यह शासन का भड़ा भारी काम है अतः श्रीसंघ की श्राज्ञा को मान दे कर श्रापको वहां पधार कर मुनियों को बारहवें दृष्टिवादांग का अध्ययन करवाना चाहिये । ताकि आपके बाद दृष्टिवाद अंग का विच्छेद होना रुक जाय, किन्तु इस पर भी भद्रबाहु ने लक्ष्य नहीं दिया।
उस हालत में मुनियों ने कहा कि आप जानते हो कि श्रीसंघ की आज्ञा को भंग करे उसको क्या इतश्च तस्मिन्दुष्काले कराले कालरात्रिवत् । निर्वाहाथं साधुसंघस्तीरं नीरनिधेर्ययौ ॥ अगुण्यमानं तु तदा साधूना विस्मृतं श्रुतम् । अनभ्यसनतो नश्यत्यधीतं धीमतामपि ॥ सङ्घोऽथ पाटलीपुत्रे दुष्कालान्तेऽखिलोऽमिलत् । यदङ्गाध्ययनोद्देशाद्यासीद्यस्य तदाददे ॥ ततश्चैकादशाङ्गानि श्रीसङ्घोऽमेलयत्तदा । दृष्टिवादनिमिञ च तस्थौ किंचिद्विचिन्तयन् ॥ नेपालदेशमार्गस्थं भद्रबाहुँ च पूर्विणम् । ज्ञात्वा सङ्घः समाह्वातुं ततः प्रैपीन्मुनिद्वयम् ॥ गत्वा नत्वा मुनी तौ तमित्यूचाते कृताञ्चली । समदिशति वः सङ्घस्तत्रागमनहेतवे ॥ सोऽप्युवाच महाप्राणं ध्यानमारब्धमस्तियत् । साध्यं द्वादशभिर्नागमिष्याम्यहं ततः ॥ महाप्राणे हि निष्पन्ने कार्ये कस्मिंश्चिदागते । सर्व पूर्वाणि गुण्यन्ते सुत्रार्थाभ्याँ मुहूर्ततः॥ तद्वचस्तौ मुनी गत्वा सङ्घस्याशंसतामथ । सङ्घोऽप्यपरमाहूयादिदेशेति मुनिद्वयम् ।। गत्वा वाच्यः स आचार्यो यःश्रीसङ्घस्यशासनम् । न करोति भवेत्तस्य दण्डःक इतिशंसनः।। सङ्घबाह्यः स कर्तव्य इति वक्तियदा स तु ! तर्हि तद्दण्डयोग्योऽसीत्याचार्यो वाच्य उच्चकैः।। ताभ्यां गत्वा तथैवोक्त आचार्योऽप्येवमूचिवान् । मैवं करोतु भगवान्सङ्घः किं तु करोत्त्वदः ॥ मयि प्रसादं कुर्वाणः श्रीसङ्घः प्रहिणोत्विह । शिष्यान्मेधाविनस्तेभ्यः सप्त दास्यामि वाचनाः ॥ तत्रैकाँ वाचनाँ दास्ये भिक्षाचर्यात आगतः । तिस्टषु कालवेलासु तिस्रोऽन्या वाचनास्तथा ॥
प्राचार्य हेमचन्द्रसूरिकृत परिशिष्ट पर्व पृष्ट ८८
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