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________________ आचार्य यक्षदेवरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २१८ कलिंग देश का इतिहास मगध देश का निकटवर्ती प्रदेश कलिंग भी जैनों का एक बड़ा केन्द्र था। इस देश का इतिहास बहुत प्राचीन है। भगवान आदि तीर्थंकर श्रीऋषभदेव स्वामी ने अपने १०० पुत्रों को जब अपना राज्य बाँटा था तो कलिंग नामक एक पुत्र के हिस्से में यह प्रदेश आया था। उसके नाम के पीछे यह प्रदेश भी कलिंग कहलाने लगा। चिरकाल तक इस प्रदेश का यही नाम चलता रहा । वेद, स्मृति, महाभारत, रामायण और पुराणों में भी इस देश का जहाँ तहाँ कलिंग नाम से ही उल्लेख हुआ है । बौद्ध ग्रन्थों में भी इस प्रदेश का नाम कलिंग ही लिखा मिलता है । भगवान महावीर स्वामी के शासन तक इसका नाम कलिंग ही कहा जाता था । श्रीपन्नवणासूत्र में जहाँ साढ़े पच्चीस आर्य क्षेत्रों का उल्लेख है उन में से एक का नाम कलिंग लिखा हुआ है । यथा"राजगिहमगह चंपाअंगा, तह तामलितिबंगाय । कंचणपुरंकलिंगा बणारसी चैव कासीय ।" उस समय कलिंग की राजधानी कांचनपुर थी । इस देश पर कई राजाओं का अधिकार रहा है। तथा कई महर्षियों ने इस पवित्र भूमि पर विहार किया है तेवीस तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथ प्रभु ने भी अपने चरणकमलों से इस प्रदेश को पावन किया था । तत्पश्चात् आप के शिष्य समुदाय का इस प्रान्त में विशेष विचरण हुआ था । महावीर प्रभु ने पधार कर इस प्रान्त को पवित्र किया था। इस प्रान्त में कुमारगिरि ( उदयगिरि ) तथा कुमारी ( खण्डगिरि ) नामक दो पहाड़ियाँ हैं जिन पर कई जैनमंदिर तथा श्रमण समाज के लिए कन्दराऐं हैं इस कारण से यह देश जैनियों का परम पवित्र तीर्थ रहा है। कलिंग, अंग, बंग और मगध में ये दोनों पहाड़ियाँ शत्रुजय गिरनार अवतार नाम से भी प्रसिद्ध थीं। अतएव इस तीर्थ पर दूर दूर से कई संघ यात्रा करने के हित श्राया करते थे । ब्राह्मणों ने अपने प्रथों में कलिंग वासियों को 'वेदधर्मविनाशक' बतलाया है । इससे मालूम होता है कि कलिंग निवासी सब एक ही धर्म के उपासक थे। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि वे सब के सब जैनी थे । ब्राह्मण लोग कहीं कहीं अपने ग्रन्थों में बौद्धों को भी 'वेदधर्म विनाशक' की उपाधि से उल्लेख किया है पर कलिंग में पहले बौद्धों का नाम-निशान तक भी नहीं था। महाराजा अशोक ने कलिंग देश पर आक्रमण किया था उसी के बाद कलिंग देश में बौद्धों का प्रवेश हुआ था। ब्राह्मणों ने अपने आदित्य पुराण एवं पद्मपुराण में यहां तक लिख दिया है कि कलिंग देश अनार्य लोगों के रहने की भूमि है । जो ब्राह्मण कलिंग में प्रवेश करेगा वह पतित समझा जावेगा । यथा--- “गत्वैतान्कामतोदेशात्कलिंङ्गाश्च पतेत् द्विजः ।" यह भी बहुत सम्भव है कि शायद ब्राह्मणों ने कलिंग देश में पहुँच कर जैनधर्म स्वीकार कर लिया हो । इसी हेतु उन्होंने ब्राह्मणों को कलिंग में जाने तक को भी निषेध कर दिया हो। उस समय एक बार जैनों का कलिंग देश में पूरा साम्राज्य होगया पर आज वहाँ जैनियों की विशेष बसती नहीं है। इसका कारण विधम्मियों का अत्याचार के सिवाय और क्या हो सकता है। तथापि दूरदर्शी जैनियों ने अपने धर्म की स्मृति के चिन्हरूप कलिंग देश में कुछ न कुछ तो कार्य अवश्य किया। वे सर्वथा वंचित नहीं रहे । इतिहास साफ-साफ बतला रहा है कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी तक तो कलिंग Jain Education International For Private & Personal Use Only ३५७ www.hindhiorary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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