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________________ वि० पू० १८२ वर्ष । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास अन्य दर्शनियों के मन्दिर, १९०० ब्राह्मणों के घर, ३००० व्यापारियों के घर (महाजनों) के, ९०० बगेचा ७०० वापियें २०० कुंए और ७०० दानशालाएं वगैरह थे एवं नगर अच्छा आबाद था। उस समय ब्राह्मणोंने वहाँ पर एकयज्ञ का प्रारम्भ किया और एक बकरे को होम (बली) के लिए लाये ठीक उसी समय यहाँ पर प्रियप्रन्थाचार्य का शुभ आगमन हुआ श्रावकों के कहने पर सूरिजी ने वासक्षेप मंत्र दिया कि जाओ इस वासक्षेप को बकरा पर डाल दो बस श्रावकों ने ऐसा ही किया। अंबिक अभ्यष्टित वासक्षेप के प्रभाव से बकरा स्वयं उड़कर आकाशमें चला गया और वह स्थित रह कर कहने लगा अरे निर्दय ब्राह्मणों तुम लोग अपना स्वल्प स्वार्थ के लिए अनेक प्राणियों के प्राणों को नष्ट कर रहे हो इस समय मारने की नियत से मुझे भी लाये हो यदि मैं भी तुम्हारी तरह निर्दयपना धारण कर लू तो जैसे हनुमान ने लंका एवं राक्षसों को विध्वंस किया था वैसे ही मैं तुम सब को यमद्वारे पहुँचा सकता हूँ। अरे मूढ़ ब्राह्मणों जिन्हों को तुम अवतार मानते हो उनके वाक्यों को तो याद करो कि उन्होंने क्या कहा है : यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषुभारता । तावद् वर्ष सहस्राणि पच्चन्ते पशु घातकाः ॥ जिस पशु की हिंसा की जाती है उसके शरीर पर जितने रोम हैं उतने हजार वर्ष तक पशु मारने वाले को नरक में घोर दुःखों का अनुभव करना पड़ता है और भी देखिये। योदद्यात् कांचनं मेरुः कृत्स्ना चैव वसुन्धरा । एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्य युधिष्ठिरः ॥ एक दानेश्वरी सुवर्ण का मेरुः दान करता है तब दूसरा एक मरता हुआ प्राणी को बचा कर प्राण दान करता है अतः प्राण दान के सामने सुवर्ण के मेरू का दान कोई गिनती में नहीं आ सकता है । इत्यादि इस पर यज्ञ करने वाले एवं देखने वाले भयभ्राँत हो कर पूछने लगे कि श्राप कौन हैं ? इस पर आकाश में रहा हुआ बकरा कहने लगा कि मैं अग्नि देव हूँ और यह पशु मेरा बहान रूप है अतः तुम अपना भला चाहते हो तो इस यज्ञ कर्म को छोड़ दो और इस नगर में प्राचार्य प्रियप्रन्थ सूरि आये हुए हैं तुम सब लोग वहाँ जाकर धर्म का स्वरूप पूछो वे तुमको ठीक रास्ता बतलावेंगे उसी मार्ग पर चल कर शुद्ध धर्म का पालन करो कि तुम्हारा कल्याण हो । अरे विनों जैसे नरेन्द्रों में चक्रवर्ती, धनुर्धरों में धनुजय है इसी प्रकार सत्यवादियों में प्रियग्रन्थ सूरि है इत्यादि । बाद ब्राह्मण मिल कर आचार्य प्रियग्रन्थसूरि के पास आये और धर्म का स्वरूप सुन कर मिथ्या धर्म का त्याग कर शुद्ध जैन धर्म को स्वीकार किया और उसकी ही आराधना की। प्रियग्रंथसूरि बड़े ही प्रभाविक श्राचार्य हुये आपकी संतान मध्यमिका शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी प्रकार विद्याधर गोपाल से विद्याधरी शाखा निकली। आर्य सुस्थी एवं सुप्रतिबुद्ध ने जैन धर्म की आराधन पूर्वक अन्त समय अपने पट्ट पर आर्य दिन्न को नियुक्त कर आप वीरात् ३५४ वर्षे स्वर्ग सिधाये । Jain Educaue Fernational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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