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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् २१८
भगवान महावीर की परम्परा के नौवें पट्टधर श्राचार्यसुस्थी और आचार्य प्रतिबुद्ध नामके दो श्राचार्य हुए आप गत प्रकरण में पढ़ आये हैं कि आचार्य सुहस्तिसूरि के मुख्य बारह शिष्यों में आप दो थे । जब तक आचार्य सुस्थीसूरि गच्छनायक रहे वहाँ तक आचार्य प्रतिबुद्धसूरि गच्छ की सार संभाल करते थे । यह पद्धति श्राचार्य संभूतिविजयसूरि और श्राचार्य भद्रबाहु स्वामिसे ही चली आ रही थी। आप दोनों सूरिवर दशपूर्वधर थे, आपने जैनधर्मके प्रचार हित बहुत प्रयत्न किया और आपने अपना कार्य में अच्छी सफलता भी पाई थी तथा
का विहार क्षेत्र भी बहुत विशाल था पर आपका विशेष भ्रमण कलिंग देशकी श्रोर होता था, कलिंगकी खंडगिरि और उदयगिरि पहाड़ियोंको कुमारीकुमार पर्वत कहते थे और वे जैनोंके तीर्थरूप होने से उस समय शत्रुंजय गिरनार अवतार भी कहलाते थे। जैन निर्प्रन्थों के ध्यान करने योग्य वहाँ अनेक गुफाएं भी थीं इन आचार्यों ने भी वहाँ रह कर योगाभ्यास किया था इतना ही क्यों पर आप वहाँ रह कर सूरि मंत्र का जप भी निरंतर किया करते थे | आपने थोड़ा ही नहीं पर कोटीवार सूरि मंत्र का जाप किया था यही कारण है कि पका गच्छ जो पहले निर्मन्थगच्छ के नाम से कहा जाता था पर आपके समय वह कोटीगण के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो कोटीवार सूरि मंत्र का जाप करने की स्मृति स्वरूप था । जैसे आचार्य हस्तिरि के भक्त राजा सम्प्रति थे इसी प्रकार आपके भक्त महामेघबहान चक्रवर्त महाराजा खारवेल (भिक्षुराज थे । श्रापश्री ने समय समय राजा खारबेल को उपदेश दे कर जैनधर्म का प्रचार करवाया था और जैसे राजा सम्प्रति ने जैनधर्म का प्रचार के हित आर्य सुहस्तिसूरि की अध्यक्षत्व में सभा की थी इसी प्रकार राजा खारबेल ने आर्य सुस्थीसूरि के अध्यक्षत्व में कुमार कुमारी पर्वत पर एक विराट सभा की थी और उसमें जैनधर्म का प्रचार के अजावा जैनागमा (दृष्टवादादि) जो कई विस्मृत हो गये थे, उनकी आचार्य सुहस्थी सूरि के नायकता में ठीक व्यवस्था करवाकर ताड़पत्रादि पर लिपिबद्ध करवाये ।
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मगध का आठवां राजानन्द ने कलिंग पर आक्रमण कर वहाँ के रत्नादि के साथ कलिंग जिनमूर्ति ले गया था, राजा खारबेल ने मगध पर चढ़ाई कर अपना बदला लिया और वह मूर्ति पुनः कलिंग में ले आया और आर्य सुस्थीर के कर कमलों से उसी मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठा करवाई। इन सब बातों का उल्लेख हेमवन्त स्थविरावलि और हस्ती गुफा के शिलालेख में मिलते हैं । जिसको मैं आगे के पृष्ठ में उद्धृत करूँगा ।
आर्य सुस्थी एवं प्रतिबुद्ध बड़े ही प्रभावशाली हुए आपके समय जैनधर्म एक राष्ट्रीय धर्म बन चुका था, आपके कर कमलों से अनेकों मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टाएं एवं मुमुक्षुत्रों की दीक्षा भी हुई।
आर्य सुस्थी सूरि की समुदाय कोटीक गच्छ के नाम से कहलाई जाती थी उस कोटीक गच्छ चार शाखाएँ निकली । १ - उच्चनागोरी २ - विद्यधरी ३ - बज्री और ४ - मध्यमिका और इस गच्छ से चार कुल भी निकले थे जैसे १ - बंभलिप्त २ - वस्त्रलिप्त ४ -- वारणज्य ४ - प्रश्नबाहनक यों तो इन युगलाचार्यों ने अनेकों को दीक्षा दे अपने शिष्य बनाये थे पर उनमें पांच स्थविर मुख्य थे । १ - आर्य दिन्न २ - आर्यत्रियप्रन्थ ३ - आर्य विद्याधर गोपाल ४ - आर्य ऋषिदत्त और ५ श्रर्य अर्हदत्त ।
इन पांचों स्थविरों में एक प्रियग्रन्थ का संक्षिप्त उल्लेख प्रन्थकारों ने इस प्रकार किया है कि मरूधर प्रांत में उस समय हर्षपुर नाम का नगर जो अजयमेरू के नजदीक था (शायद यह मारवाड़का वर्तमान हर साल ग्राम ही हो ) उस नगर में शुभटपाल नाम का राजा राज करता था नगर में ३०० जैन मन्दिर, ४००
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