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________________ वि० पू० १८२ वर्ष] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उसने सोचा कि वास्तव में मुझे स्वप्न में जिस अग्नि से बचाया वे यही महात्मा हैं जब मैं द्रव्याग्नि से बच गया तो क्या हुआ भावाग्नि में तो मैं अभी जल ही रहा हूँ अतः मैं इन महात्माजी की शरण लेकर भावाग्नि से बच जाऊँ । इस भावना से सूरिजी से अर्ज की हे पूज्यवर ! जैसे आपश्री ने मुझे स्वप्न में द्रव्याग्नि से बचाया है वैसे ही अब भावाग्नि से बचाइये मैं मेरे पुत्र लाखण के साथ दीक्षा लेने को तैयार हूँ। _ आचार्य श्री ने फरमाया कि 'जहाँ सुखम्' यदि आपकी यही भावना है तो इस संसार रूपो अग्नि से बचने के लिए अब विलम्ब नहीं करना चाहिये । इस बातों को सुनकर सभा मंत्रमुग्ध बन गई। इतना ही क्यों पर राजा और राजपुत्र के तत्कालीन वैराग्य और सूरिजी का वैराग्यमय उपदेश सुनकर कई भव्यों ने ने राजा का अनुकरण करने के लिए तैयारी कर ली। देवी सच्चायिक ने सूरिजी के पास आकर कहा क्यों पूज्यवर ! मरुधर में पधारने से आपको लाभ हुआ है न ? सूरिजी ने कहा हाँ हाँ देवीजी ! आपका कहना सत्य ही हुआ। इसी कारण तो आचार्यश्री रत्नप्रभसूरि ने आपका नाम सच्चायिका रक्खा है। शुभ मुहूर्त में राजा क्षेत्रसिंह ने अपने बड़े पुत्र जैतसिंह को राजरोहण कर आप अपने पुत्र लाखणसी और नागरिक लोगों के साथ महामहोत्सव पूर्वक सूरिजीमहाराज के चरण कमलों से भगवती जैनदीक्षा स्वीकार करली । तत्पश्चात् सूरिजी मरुधरादि अनेक प्रान्तों में विहार कर जैनधर्म की खूब ही उन्नति एवं प्रभावना की। यों तो आप श्री के अनेक शिष्य थे, परन्तु लाखण्यमुनि की योग्यता कुछ और ही थी । ये और शिष्यों से कई बातों में बढे चढे हए थे इनकी विशेष अभिरुचि शास्त्रों की ओर थी। सरस्वती की दया से आपने स्वल्प समय में सारे श्रावश्यक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। प्रथम तो आप दूसरों के अनुभवों का अध्ययन किया पर पश्चात् आपने अपने ज्ञान को भी स्थायी रूप में दूसरों के लिये रख छोड़ने के परम पवित्र उदेश्य से आपने प्रन्थ निर्माण करना भी प्रारम्भ किया । धैर्यता, गंभीरता, उदारता, समता, क्षमता, श्रादि गुणों के कारण आप सर्व प्रिय हो गये थे । इन गुणों के अतिरिक्त वाक्पटुता और भाषण माधुर्यता के कारण आपके व्याख्यान बहुत सरस और श्रवणप्रिय होते थे। उन दिनों में यक्षदेवसूरिजी के पास एक आप ही ऐसे सुयोग्य शिष्य थे जो आचार्य पदके लिये सर्व प्रकार से योग्य थे । इन्हीं अलौकिक और उपयोगी गुणों के कारण यक्षदेवसूरि ने उपकेश नगर में राव जैत्रसिंह के महा महोत्सव पूर्वक श्री संघ के समक्ष मंत्रों एवं वासक्षेप की विधि विधान से आपको श्राचार्य पद पर सुशोभित किया। प्राचार्य बनाकर इनका नाम ककसूरि रक्खा । यक्षदेवसूरी संघ की बागडोर अपने सुयोग्य शिष्य को सौंप सिद्धगिरि की यात्रार्थ प्रस्थान कर दिया। वहाँ पहुँचकर परम निर्वृति का सेवन करने में आप सदा प्रयत्नशील रहते थे। अन्त में आप श्री ने अनशन व्रत धारण करजिया और २७ दिन पूर्ण समाधि एवं ध्यान में बिताये तत्पश्चात इस नाशमान शरीर का त्याग कर परम समाधि के साथ स्वर्ग सिधाये । इति पट्ट बारहवें यक्षदेव की सेवा विबुध जन करते थे । बादी मानी और पाखण्डी देख देख कर जरते थे । उद्योत किया शासन का भारी नये जैन बनाते थे । वीर प्रभु के शुभ संदेश को घूम घूम सुनाते थे । इति श्री भगवान् पार्श्वनाथ के बारहवें पट्टपर प्राचार्य यक्षदेवसूरि हुए । _Jain Educati३५४National For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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