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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ औसवाल संवत् २१८
पाठकगण ! श्राप को पहिले बताया जा चुका है कि आचार्य स्वयंप्रभसूरि से दीक्षा लेते समय विद्याभर रमचूड़ के पास जो नीलीपन्नामय चिन्तामगि पार्श्वनाथ की मूर्ति थी, वह मूर्ति दर्शनार्थ रत्नचूडमुनि ने अपने पास रख ली थी। आगे चलकर वही रत्नचूड़ मुनि रत्नप्रभसूरि हुए । प्रस्तुतः मूर्ति रत्नप्रभसूरि के पट्टपरम्परा से अब यक्षदेवसूरि के पास मौजूद थी। जिस समय यक्षदेवसूरि प्रतिमा के सम्मुख उपासना के लिए विराजते थे । उस समय सच्चायिका देवी और अन्य देव-देवियाँ भी दर्शनार्थ उपस्थित हो जाते थे। एक बार सच्चायिका देवी ने प्राचार्य श्री से विनती की कि आप एक बार मरुस्थल की ओर विहार करिये । मरुस्थल में आपश्री के पधारने की नितान्त आवश्यक्ता है । आचार्यश्री ने देवी से पूछा कि देवीजी! मरूस्थल में हमारे कई मुनि विहार कर रहे हैं । फिर मेरी ही वहां ऐसी क्या आवश्यक्ता है ? देवी ने उत्तर दिया कि पूज्यवर!आपश्री का कार्य तो आपही कर सकेंगे दूसरा नहीं । आप श्रीमान् एक बार मेरी प्रार्थना स्वीकार कर अवश्यमेव मरुधर की ओर पधारिये। देवी का इतना आग्रह देखकर आपने मरूस्थल की ओर विहार करने का निर्णय कर लिया और थोड़े समय में मरुधर की ओर विहार भी कर दिया ।
उधर मरूस्थल प्रान्त में उपकेशपुर के महाराव क्षेत्रसिंह ( खेतसी ) को रात्रि में एक स्वप्न आया कि वह अपने लोतासा पुत्र को लिये हुए राजमहल में सोता हुआ था। यकायक चारों ओर से अग्नि की ज्वालाएँ आती हुई दिखाई दी। राजाने स्वप्न ही में खूब प्रयत्न किया पर अग्नि से बचने का कोई उपाय नहीं मिला । अन्त में राजा ने यह भी निश्चय कर लिया कि यदि मैं स्वयं अग्नि में जलकर भस्म हो जाऊं वो कुछ परवाह नहीं; किन्तु मेरा लड़का किसी प्रकार बच जाय । राजा की ऐसी भावना होते ही एक महात्मा सामने से आता हुआ दृष्टिगोचर हुआ । उस महात्मा ने उन दोनों को जलती हुई आग से बचा लिया। इस के बाद राजा की आंख खुली तो उसको विस्मय हुआ कि यह क्या घटना घटित हुई हैं ? राजा विचारसागर में निमग्न हो गया । उसने अपने मंत्री को भी यह वर्णन कह सुनाया। रात्रि को राजा ने अपने स्वप्न की बात अपनी रानी को भी सुनाई । रानी ने उत्तर दिया कि स्वप्न की बातें असार हैं। इस पर इतना विचार करना व्यर्थ है । अतः राजा ने अपनी स्वप्न की दशा पर इतना ध्यान नहीं दिया ।
आचार्यश्री यक्षदेवसूरि विहार करते हुए मरूस्थल प्रान्त में पधारे। जब यह समाचार लोगों ने सुना तो प्रान्तभर में आनन्द छा गया। ठीक है धर्मज्ञ लोगों को इससे बढ़कर हर्ष ही किस बात का होता है देवी की अत्याग्रह के कारण आप श्री क्रमशः विहार करते हुए उपकेशपुर पधारे। श्रीसंघ ने आपका सुन्दर स्वागत किया चतुर्विध श्रीसंघ के साथ आप श्री ने भगवान् पार्श्वनाथ एवं महावीर की यात्रा की और मङ्गलाचरण के पश्चात् देशना दी । बाद भीआपका व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य पर होता था आपने फरमाया कि संसार में जन्म जरा मृत्यु रूपी अलीता पलीता अर्थात् अग्नि लग रही है और उसमें अनन्त जीव जल रहे हैं । विषय और कषाय रूपी ईंधन से वह अग्नि सदैव नजल्यमान रहती है यदि कोई भव्यात्मा उस अग्नि से बचना चाहे तो उनके लिए एक उपाय जैनधर्म की आराधना करना है और बड़े-बड़े राजा महाराज एवं चक्रवर्ति भी स्वाधीन सुख-सम्पति का त्याग कर जैन-दीक्षा धारण कर इस अग्नि से छुटकारा पाया
और अक्षय शान्तिप्राप्त की है यदि आप लोग भी इसी मार्ग का अनुकरण करे तो संसाररूपी दावानल से बच सकते हैं। इत्यादि । सूरिजी महाराज ने अपनी ओजस्वी गिरा द्वारा खूब समझाये ।
राव खेतसी ने ज्यों ही सुरिजी का व्याख्यान सुना त्यों ही उसको अपने स्वप्न की स्मृति हो आई।
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