SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 577
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० पू० १८२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास देश में जैनियों की पूर्ण जाहोजलाली थी। इतना ही नहीं पर विक्रम की सोलहवीं शताब्दि में सूर्यवंशी महाराजा प्रतापरूद्र वहाँ का जैनी राजा था। उस समय तक तो कलिंग देश में जैन धर्म का अस्तित्व थोड़ा बहुत प्रमाण में अवश्य ही रहा था । पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सर्वथा जैनधर्म यकायक कलिंग में से कैसे चला गया । इस पर विद्वानों का मत है कि जैनों पर किसी विधर्मी राजसत्ता पूर्वक निर्दयता से ऐसे प्रत्याचार हुए होंगे कि उन्हें कलिंग देश का परित्यागन करना पड़ा। यदि इस प्रकार की कोई आपत्ति नहीं आती तो कदापि जैनी इस देश को सर्वथा प्रकार से नहीं छोड़ते । केवल इसी देश में जैनों पर विधर्मियों के अत्याचार हुए हो ऐसी बात नहीं है, पर विक्रम की आठवीं नौवीं शताब्दी में महाराष्ट्र में भी जैनों को इसी प्रकार की मुसीबत से सामना करना पड़ा था क्योंकि विधर्मी नरेशों से जैनियों की उन्नति देखी नहीं जाती थी । वे तो जैनियों को दुःख पहुँचाना अपना धर्म समझते थे । कई जैन साधु शूली पर लटका दिये गये । वे जीते जी कोल्हू में पेरे गये । उन्हें जमीन में धा गाड़ कर काग और कुत्तों से नुचवाया गया इसके कई प्रमाण मी उपस्थित हैं । “हालस्य महात्म्य" नामक ग्रन्थ, जो तामिली भाषा है, उसके ६८ वें प्रकारण में इन अत्याचारों का रोमांचकारी विस्तृत न मौजूद है, किन्तु जैनियों ने अपने राजत्व में किसी विधर्मी को नहीं सताया था यही जैनियों की विशेषता है। यह कम गौरव की बात नहीं है कि जैनी अपने शत्रु से बदला लेने का विचार तक भी नहीं करते थे । यदि जैनियों की नीति कुटल होती तो क्या वे सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य या सम्प्रति एवं कुमारपाला नरेश के राज्य में विधर्मियों को सताने से चूकते, कदापि नहीं । पर जैनी किसी को सताना तो प्रति कभी अस विचार तक भी नहीं करते हैं । में रहा, दूसरे जीव के जैन शास्त्रकारों का यह खास मन्तव्य है कि अपने प्रकाश द्वारा दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करना तथा सदुपदेश द्वारा भूले भटकों को राह बताना और सबके प्रति मैत्रीभाव रखना चाहिए यह जैनियों का साधारण आचार है। जो थोड़ा भी जैनधर्म से परिचित होगा उपरोक्त बात का अवश्यमेव समर्थन करेगा | परन्तु विधर्मियों ने अपनी सत्ता के मद में जैनियों पर ऐसे-ऐसे कष्टप्रद अत्याचार किये कि जिनका वर्णन याद आते ही रोमांच खड़े हो जाते हैं तथा सुनने वालों का हृदय थर-थर काँपने लग जाता है । जिस मात्रा में जैनियों में दया का संचार था विधर्मी उसी मात्रा में निर्दयता का वर्ताव कर जैनियों को इस दया के लिए चिढ़ाते थे । पर जैनी इस भयावनी अवस्था में भी अपने न्यायपथ से तनिक भी विचलित नहीं हुए । यही कारण है कि आज तक जैनी अपने पैरों पर खड़े हैं और न्याय पथ पर पूर्णरूप से आरूढ़ हैं । धर्म का प्रेम जैनियों की रग-रग में रमा हुआ है जैनों के स्याद्वाद सिद्धान्तों का आज भी सारा संसार में लोहा माना जाता है । स्याद्वाद के प्रचंड शस्त्र के सामने मिध्यात्वियों का कुतर्क टिक नहीं सकता । स्याद्वाद की नीतिद्वारा आज भी जैनी विधर्मियों का मुँह बन्द कर सकने में समर्थ हैं। कलिंग देश में जैनियों का नाम निशान तक जो आज नहीं मिलता है इसका वास्तविक कारण यही है कि विधर्मियों ने जैनियों के साथ धर्म द्वेष के कारण अन्यायपूर्वक अत्याचारों से महान् दुखी किये कि उन लोगों को कलिंग का त्याग करना पड़ा अतः कलिंग प्रदेश जैनियों से निर्वासित हो गया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । और यह केवल मेरी ही मान्यता नहीं है पर आधुनिक संशोधकों एवं इतिहासकारों का भी यही मत है कि विधर्मियों द्वारा जैनों पर बहुत जुल्म गुजरा गया था इत्यादि । Jain Edu international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy