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आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् २१८
जैनाचार्यों ने अन्यान्य विषयों पर बड़े बड़े प्रन्थों का निर्माण किया पर जिस कलिंग के साथ चिरकाल तक जैनों का घनिष्ठ संबंध रहा था उसके लिए शायद ही किसी ने दो चार पंक्ति लिखी हो । क्या श्वेताम्बर और क्या दिगम्बर आज इस बात के लिए दोनों ने बिल्कुल मौनव्रत का ही सेवन किया है । यदि किसी ने थोड़ा बहुत लिखा भी होगा तो शायद वे मुसलमानों के अत्याचारों से बच नहीं सके होंगे ।
फिर भी बड़ी खुशी की बात है कि थोड़े अर्से पूर्व पुराने भंडार की संभाल करते समय एक 'हेमवंत पट्टावली' (थेरावजी ) उपलब्ध हुई है और उसमें कलिंग के इतिहास की थोड़ी बहुत सामग्री है ।
हेमवंतपट्टावली के निर्माण कर्त्ता आचार्य हेमवंतसूरि जो प्रसिद्ध अनुयोगधार एवं माथुरी वाचना के नायक आचार्य स्कंदिल सूरि के शिष्य एवं पट्टधर थे । श्रापका समय विक्रम की चौथी शताब्दी का है । नंदीसूत्र में भी आपके नाम का उल्लेख पाया जाता है । जैन पट्टावलियों में सब से प्राचीन एवं महत्व वाली यह हेमवंत पट्टावली है । इसमें वर्णित घटनाएं प्रायः ऐतिहासिक घटना कही जा सकती हैं ।
प्रस्तुत पट्टावली पद्य एवं गद्य में लिखी गई है। इस पट्टावली का सारांश गुर्जरगिरा में पं० हीरालाल हंसराज जामनगर वाले ने अपनी अंचलगच्छ बड़ी पट्टावली में तथा इतिहासवेत्ता पन्यासजी श्री कल्याणविजयजी महाराज ने 'वीर निर्वाण सम्वत् और जैनकालगणना' नामक पुस्तक के परिशिष्ट के रूप में उद्धृत किया है और वह हिन्दी भाषा में होने से मैं पाठकों की जानकारी के लिये केवल कलिंग के साथ संबंध रखने वाली घटना को ही यहाँ उद्धत कर देता हूँ ।
पाटलिपुत्री के मौर्य राज्य शाखा को पुष्यमित्र तक लिखने के बाद थेरावली कारने कलिंगदेश के राजवंश का वर्णन दिया है । हाथीगुंफा के लेख से कलिंगचक्रवर्ती महाराजा खारबेल का तो थोड़ा बहुत परिचय विद्वानों को अवश्य है, पर उसके वंश और उसकी संतति के विषय में अभी तक कुछभी प्रमाणिक निर्णय नहीं हुआ था। हाथीगुंफा के शिलालेख के 'चेतवसवघनस' इस उल्लेख से कई कई विद्वान खारबेल को 'चैत्रवंशीय' समझते हैं, तब कोई उसे 'चेदिवंश' का राजा कहते थे । हमारे प्रस्तुत थेरावलीकारने इस विषय को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है । थेरावली के लेखानुसार खारवेल न तो चैत्रवंशी था और न चेदि वंशी पर वह तो चेटकवंशीय था । क्योंकि वह वैशाली के प्रसिद्ध राजा चेटक के पुत्र कलिंगराज शोभनराय की वंश परंपरा में जन्मा था ।
अजातशत्रु के साथ की लड़ाई में चेटक राजा के मरने पर उसका पुत्र शोभनराय वहाँ से भाग कर किस प्रकार कलिंग राज के पास गया और कलिंग का राजा हुआ इत्यादि वृतांत थेरावली के शब्दों में ही नीचे लिख देते हैं । विद्वान लोग देखेंगे कि कैसी अपूर्व घटना है ।
"वैशाली का राजाचेटक तीर्थंकर महावीर का उत्कृष्ट श्रमणोपासक था | चंपानगरी का अधिपति राजा कोणिक, जो कि चेटक का भानजा था, ( अन्य श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के ग्रन्थों में कोणिक को चेट का दोहिता लिखा है ) वैशाली पर चढ़ आया और उसने लड़ाई में हरा दिया । लड़ाई में हराने
बाद अन्न जल का त्याग कर राजा चेटक स्वर्गवासी हुआ । चेटक के शोभनराय नाम का एक पुत्र वहाँ से ( वैशाली नगरी से ) भाग कर अपने श्वसुर कलिंगाधिपति सुलोचन की शरण में गया । सुलोचन के पुत्र नहीं था इसलिये अपने दामाद शोभनराय को कलिंग देश का राज्यासन देकर वह परलोक वासी हुश्रा । भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद १८ वर्ष बीतने पर शोभनराय का कलिंग की राजधानी
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