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________________ वि० सं० पू० १३६ वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास __ इस घटना का समय मूल प्रतिष्ठा ( वीरात् ७० वर्ष ) से तीन सौ तीन वर्ष का अर्थात वीरात् ३७३ वर्ष का था। भवितव्यता टारी नहीं टरती है कि महाजनसंघ के अभ्युदय में इस प्रकार का रोड़ा आ खड़ा हुआ। परन्तु इसका उपाय ही क्या था, कारण ज्ञानियों ने यही भाव देखा था । महाजनसंघ का जैसा उदय ३०३ वर्षों में हुआ था वैसा बाद में नहीं हुआ। प्राचार्य ककसूरिजी महाराज ने कई दिन वहाँ विराजमान रह कर जनता को धर्मोपदेश सुनाया। यद्यपि उपकेशपुर नगर में उपद्रव की शान्ति तो गई थी पर फिर भी राजा प्रजा की इच्छा थी कि सूरिजी महाराज चातुर्मास यही करें, तो अच्छा रहेगा इत्यादि अतः श्री संघ ने सूरिजी महाराज से साग्रह विनती की और लाभा लाभ का कारण जान कर सूरिजी महाराज ने श्रीसंघ की विनति स्वीकार करली अतः वह चातुर्मास उपकेशपुर में ही किया । __ आपश्री के विराजने से वहाँ की जनता ने यथा शक्ति बहुत लाभ प्राप्त किया। कई भावुकों ने सूरिजी के पास जैन दीक्षा भी ली । चातुर्मास के बाद सूरिजी के प्रभावशाली उपदेश से उपकेशपुर के श्रादित्य नाग गोत्रीय स्वनामधन्य शाह आशल ने श्रीशजय का संघ निकाला। सूरिजी महाराज भी संघ में पधारे वहाँ की यात्रा कर सूरिजी ने अपने योग्य शिष्य मुनि देवसिंह को अपने पद पर सूरि बना कर उनका तदादिमज्जनविधि, रेवं प्रववृते सदा । देव्यादेशो गुरुक्तंच, कथंस्यादन्यथाकिचित् ॥ वीरस्यदक्षिणो बाहौ, नववामे नवक्रमात् । अष्टादशापि गोत्राणि, तिष्ठन्त्यत्र क्रमोघम ॥ तप्तभटो बप्पनाग, स्ततः कर्णाट गौत्रजः । तुर्यो बालम्य नामापि, श्रीमालः पंचमस्तथा ॥ कुलभद्रो मोरिषश्च, भिरिहिद्याह्ययोऽष्टमः । श्रेष्ठीगोत्राण्य मून्यासन, पक्षे दक्षिण संज्ञके ॥ सुचिंतिताऽऽदित्य नागौ, भोरो भाद्राथ चिंचिटिः । कुभटः कन्यकुब्जोथ, डिंडुभाख्योऽष्टि मोपि च ॥ तथान्यः श्रेष्ठि गोत्रीयो, महावीरस्य नामतः । नव तिष्ठन्ति गोत्राणि, पंचामृत महोत्सवे ॥ वीर प्रतिष्ठा दिवसादतीते, शतत्रयेऽनेहसि वत्साराणाम् ॥ त्रिभिर्युते गन्थि युगस्य वीरो, रः स्थस्य भेदोऽजनि दैव योगात् ।। ___इन १८ गोत्रों के अलावा उपकेशपुर में कितने गोत्र वाले बसते थे क्यों कि इतना दीर्घ समय अर्थात् ३०० वर्ष में और भी कई गोत्र अवश्य बन गये होंगे तथा उपकेशपुर के अलावा अन्य प्रदेशों में भी लाखों जैनी बसते थे, उनके भी कई गोत्र बन गये होंगे पर इन बातों को जानने के लिये हमारे पास इस समय कोई भी साधन नहीं है। हाँ इस समय के बाद कई गौत्रों का पता अवश्य मिलता है जिनको हम आगे के पृष्ठों में लिखेंगे। __"कई लोग कहते हैं कि ओसियाँ में ओसवाल रात्रि में नहीं रह सकते हैं इसका यही कारण है कि देवी का कोप हुआ था । पर यह बात बिल्कुल निराधार है कारग उपद्रव का समय वि० पू० ९७ वर्ष का है तब विक्रम की बारहवीं शताब्दी तक तो ओसियाँ में महाजनों की घनी बस्ती थी जिसके प्रमाण हम पहले लिख आये हैं तथा विक्रम की तेरहवीं बताब्दी में ओसियाँ पर यवनों का आक्रमण हुआ था उस समय बहुत से लोग ओसियाँ को त्याग कर अन्य स्थानों में जा बसे थे तथापि विक्रम की चौदहवीं पन्द्रहवीं शताब्दि में वह थोड़े बहुत प्रमाण में महाजनों की बस्ती होने के प्रमाण मिल सकते हैं । अतः यह बात गलत है कि ओसियाँ में ओसवाल नहीं रह सकते हैं । यदि कोई रहना चाहे तो वे आज भी खुशी से रह सकते हैं। लेखक Jain Educe international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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