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आचार्य ककसरि का जीवन ]
[ औसवाल संवत् २६४
___ इस पर देवी कुछ शांत होकर कहने लगी:-पूज्यवर ! आपका कहना तो ठीक है पर इस प्रकार की मूर्खता पर मुझे बहुत गुस्सा आ गया। यदि आप इस प्रकार कहते हैं तो आपश्री के वचन मुझे स्वीकार करने ही पड़ेंगे । अब मैं आप से इसकी शांति विधि बतलाती हूँ। +
"दूध, दही, घृत, जल, चंदन, कुंकुंम, श्रीफल, पुंगीफल-खारक बादाम औषधी वगैरह १०८, १०८ प्रमाण में लेकर स्नात्र की विधि और बलबाकुल एवं मंत्रों द्वारा मूर्ति का स्नात्र महोत्सव करावें और श्रीसंघ चौवीहार अष्टम तप इस करे, विधि को करने से रक्त धारा बंद हो जायगी और नगर में पुनः शांति भी हो जायगी, परंतु इस प्रकार की विधि पहले अन्य स्थानों में न कर महावीरमंदिर में ही करवाई जाय । हाँ बाद में काम पड़ने पर तो दूसरे मंदिरों में भी करवाई जा सकती है।" इत्यादि कह कर देवी तो अदृश्य हो गई।
___ सुबह सूरिजी महाराज ने सकल श्रीसंघ के सामने जो खास तौर पर कहने योग्य बातें थीं वे कहदी और श्रीसंघ ने अष्ठम तप का पारण करके स्नात्र की सब सामग्री एकत्र की और सूरिजी के साथ सकल श्रीसंघ ने पुनः अष्टमतप कर देवी की बतलाई हुई विधि अनुसार सब सामग्री लेकर सूरिजी के साथ सकल श्रीसंघ भगवान महावीर के मंदिर में आये वहाँ पर उपकेशवंश के अठारह गोत्र वाले स्नान करके स्नात्रिये बने । जैसे ( १) तातेड़गोत्र ( २) बाफणागोत्र ( ३) कर्णाटगोत्र ( ४ ) क्लहागोत्र (५) मोरक्षगोत्र (६) कुलहटगोत्र (७ ) विरहटगोत्र ( ८ ) श्रीश्रीमालगोत्र (९) श्रेष्ठिगोत्र-इन नौ गोत्रों वाले स्वात्रिय प्रभु के दक्षिण की ओर पूजा सामग्री हाथ में लिये खड़े थे। (१) संचेतीगोत्र (२) आदित्यनागगोत्र (३) भूरिगोत्र (४) भाद्रगोत्र (५) चिंचटगोत्र (६) कुंभटगोत्र (७) कनौजियेगोत्र (८) डीडूगोत्र (९) लघुश्रेष्ठिगोत्र । इन नौ गोत्रों वाले स्नात्रिय प्रभु के बाँ ई ओर जल, पुष्प, फल चंदन आदि पूजा की सामग्री लिये खड़े थे ।
आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज ने जैसे जैसे मंत्राक्षर उचारण करते गये वैसे वैसे वीरप्रभु की प्रतिमा का अभिषेक होता गया तथा जैसे जैसे पूजा होती गई वैसे वैसे अनुपात से रक्त धारा बंद होती गई। पूजा संपूर्ण हो गई तो रक्तधारा बिलकुल बन्द हो गई अतः उपकेशपुर के घर घर में धवल मंगल एवं हर्षध्वनि उद्घोषित होने लगी । आचार्यश्री की अनुप्रह कृपा से देवी का कोप भी शांत हो गया। तत्प्रसद्यस्रवद्रक्त, शक्तयादेवि निवीरय । तथाऽऽदिश यथा किंचित्, शुभं भवति सम्प्रति ॥ देवीजगादभगवन्नतः परमयंविधिः । श्रीवीरस्नपने कार्यो, न कार्यस्नात्रमन्यथा ॥ द्रोणएकोबकुलानां, विधेयोबलिहेतवे दधिदुग्धाज्य खण्डानां, सर्वोषध्याघटैभृतैः ।। चतुर्विधेनसंघेन, कृत्वाशुद्धाष्टमंतपः । अष्टादशैवसंमील्य, गोत्राणां मुख्यपूरुषान् ॥ विधिनाऽनेनवीरस्य, स्नानं कारयताऽधुना । संतिष्टते यथारक्त, भविष्यति शुभंपुनः॥ पश्चादपिप्रभोऽनेन, विधिना स्नपनोत्सवः । विधातव्योऽस्य वीरस्य,न कदाऽपि यथा तथा ॥ इत्युक्त्वासातिरोधत्त, तत्क्षणाच्छासनामरी | गुरवोऽपिसमाकार्य, संघसर्वमचीकथन् ।। स्नानं तथैव देव्युक्त- विधिना समचीकरोत् । रहितस्म ततो रक्त, शुभंचाऽभवदुच्चकैः ।।
+ पट्टावली नं. ४ में लिखा है कि देवी ने श्री सीमंघर स्वामि के पास जाकर शांति विधि पूच्छी थी और जिसका उत्तर में श्रीतीर्थकर देव ने जो शांति विधि के लिए फरमाया तदानुसार देवी ने सूरिजी को कहा।
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