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________________ वि० पू० १३६ वर्ष । [ भगवान पार्श्वनाथ को परम्परा का इतिहास एक आदमी को पत्र देकर शीघ्रगामिनी औष्ट्री ( ऊँट ) द्वारा भेज दिया और कह दिया कि पहले मांडव्यपुर तलाश करना, न मिलने पर पाबू जाना इत्यादि । सवार रवाना होकर मांडव्यपुर पहुँचा, तलाश करने पर भाग्यवशात् सूरिजी वहीं मिल गये । श्रीसंघ का विनती पत्र पढ़कर बड़ा ही अफसोस किया पर भवितव्यता को कौन मिटा सकता है ? तब सूरिजी भाकाश गामिनी विद्या से केवल एक मुहूर्तमात्र में उपकेशपुर पधार गये । वहाँ के हाल देख सूरिजी ने संघ अग्रेश्वरों के साथ अष्टम तप किया। तीसरे दिन की रात्रि में देवी सूरिजी के पास आई पर उस समय उसके कोप का पार नहीं था, यही कारण था कि सूरिजी नगर में आये पर देवीजी को इतना भी भान नहीं रहा कि वह तीन दिनों में सूरिजी महाराज की सेवा में नहीं आ सकी । जिस समय देवी आई है उस समय क्रोध के कारण विनय व्यवहार को भी भूल गई । सूरिजी ने कहा :--"देवीजी ! जो भवितव्यता थी वह बन चुकी, अब प्रकोप करने में क्या लाभ है अब तो इसके लिये शान्ति का प्रयत्न करना ही अच्छा है।" देवी क्रोधातुर होकर बोली:--प्रभो ! इस नगर के लोग बड़े ही मूर्ख हैं कि पूज्याचार्य रत्नप्रभसूरि की कराई हुई प्रतिष्ठा का भंग कर दिया । यदि यह मूर्ति थी वैसी ही रहती तो इस महाजनसंघ का खूब अभ्युदय होता, पर इनकी तकदीर ही ऐसी थी । मूर्ति के टॉकी लगाने से भविष्य में इस महाजनसंघ में फूट पड़ेगी, कोई भी कार्य शांति एवं मिल जुल के नहीं होंगे क्लेश कदामह का तो यह घर हो बन जायगा, तन धन से भी हानि होगी, इधर-उधर ये भ्रमण करते रहेंगे, इनका भविष्य अच्छा नहीं रहेगा।" सूरिजी:-'देवीजी ! ज्ञानियों ने जो जैसा भाव देखा है वैसा ही होगा, परन्तु अब आप पहले रक्तचारा बन्द करें और इसकी शान्ति का उपाय बतलावें।" इसमें ही सबका कल्याण है। देवी:-"पूज्यवर ! आप तो शांति की कहते हैं पर मैं इन दुष्ट पापियों का मुंह तक देखना नहीं चाहती हूँ। ये लोग यहां से अपना मुँह लेकर चले जॉय तो भी अच्छा हो।" सूरिजी:-- "देवी ! जरा शांत होकर विचार करें कि यदि यह संघ इस नगर को छोड़ कर चला जायगा तो पीछे रहेगा क्या ? और ये जो इतने मंदिर मूर्तियां हैं इनकी सेवा पूजा कौन करेगा ? दूसरा तो क्या पर आपकी भी सेवा पूजा कौन करेगा ? हाँ मनुष्य तो अज्ञानी हैं क्रोध के मारे अपना मान भूल जाते है पर आश्चर्य है कि देवता भी क्रोध के वश अपना मान भूल जाते हैं । भला देवीजी ! जरा सोचिये कि यह अपगध चंद व्यक्तियों ने किया है या सब नगर ने ? यदि चंद व्यक्तियों ने किया है तो सब नगर पर इतना कोप क्यों ?" इत्यादि नरम गरम वचनों से सूरिजी ने देवी को उपदेश दिया। उपायान् विविधांश्चक्रूरक्तावष्टम्भ हेतवे । नोपरेमे परं श्राद्धा, स्ततोव्याकुलतांगताः ॥ श्री माण्डव्यपुरे प्रेषीत्सविज्ञप्तिकमौष्ट्रिकम् । सङ्घश्रीककसूरीण, माकारण कृतेरयात् ॥ सूरयोऽपि समाजग्मुः, कृतवन्तोऽष्टमंतपः । आविर्भूयगरुनूचे, साक्षाच्छासनदेवता ॥ प्रभो न भव्यं विदधे, श्रावकैमूहबुद्धिभिः । भङ्गोमूलप्रतिष्ठाया, यदयंसमजायत ॥ परस्परं तत्पौराणं, विरोधोभविताऽधुना । दिशोदिशं प्रयोस्यन्ति, लोका दारिद्रय पीड़िताः ।। पुर भुङ्गोऽपि सम्भावी, कि यद्भिर्वासरै रिति । नाभविष्यत्तदभङ्ग, मभविष्यदिदंसदा ॥ सूरि प्रोवाच यद्भाव्यं, कर्मयोगेनदेहिनाम । तदन्यथाविधातुंनो, शक्तादेवासुराअपि ॥ २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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