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________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् २६४ एक समय किसी सामाजिक कार्य के लिये वृद्ध लोग किसी एक स्थान पर एकत्र हुए थे, बस युवकों ने मौका देख कर एक सुधार को द्रव्य का लोभ देकर बुलाया और प्रस्तुत मूर्ति की पंथियां काट ने को कहा । बिचारे अबोध सुधार ने द्रव्य के लालच में आकर ज्यों ही उन प्रथियों को तोड़ने के लिये टाँकी लगाई त्यों ही टाँकी के लगते ही मूर्ति के उस स्थान से रक्त की धारा बढ़ने लगी । बस सुधारतो वहीं गिर पड़ा और गिरते हो उसके प्राण छूट गये । देखते २ मूल गम्भारा रक्त से भर गया । इस दुर्घटना को देखते ही भयभीत होकर नवयुवक वहां से पलायन कर गये । जब इस बात का पता नगर में एवं बुजुगों को लगा तो उन लोगों ने बड़ा ही अफसोस किया कि उन नादान नवयुवकों को इतने समझाये पर आखिर उन ज्ञानियों ने गाठे तोड़ा कर मूल प्रतिष्ठा का भंग करके अनर्थ कर ही डाला । 1 मूर्ति के टॉकी लगने से वहां की अधिष्ठात्री देवी सच्चायिका को बड़ा भारी गुस्सा आया और वह नगर वासियों पर कुपित हो गई। बस फिर क्या था नगर भर हाहाकार मच गया, दिशायें भयंकर दिखने लगों, नगरवासियों के चेहरे फीके पड़ गये। मंदिर में जा के देखा तो ज्ञात हुआ कि मूर्ति में से रक्त की धारा निरंतर बह रही है, अनेकों प्रयत्न करने पर भी रक्त धारा रुकने का कोई उपाय सफल नहीं हुआ । एक पट्टावली में यह भी लिखा मिलता है कि उस समय उपवेशपुर में कई मुनिराज ठहरे हुए संघ अमेश्वर चलकर मुनियों के पास गये और वंदन करके वहाँ के सब हाल कहकर मुनिजी से प्रार्थना की कि पूज्यवर ! नादान नवयुवकों ने मूर्खता के कारण ऐसा जघन्य कार्य कर डाला है पर अब आप कृपा करके ऐसा उपाय बतलावें कि यह रक्त धारा बन्द हो जाय । मुनियों ने उत्तर दिया कि यह कार्य हमारी शक्ति के TET का है इसके लिये हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं। यदि आपको कार्य करना ही है तो हमारे पूज्य आचार्य श्रीककसूरिजी महाप्रभाविक व चमत्कारी हैं उनको शीघ्नातिशीघ्र बुलाओ । वरना यह कार्य दूसरे किसी से बन नहीं सकेगा । पर यह क्या खबर कि आचार्यजी कहाँ विराजते होंगे ? मुनियों ने कहा कि मांडव्यपुर, श्राबू या गिरिनार की गुफाओं में कहीं ध्यान करते होगे । इस पर राजा जैत्रसिंह आदि श्रीसंघ ने एक विनती पत्र लिखा जिसमें वहां का सब हाल लिख कर शीघ्र पधारने की प्रार्थना की थी । तथा इस विषय में उनके गच्छ चरित्र में भी उल्लेख मिलता है 1 + + एवं व्यतीतमनिषुगच्छेऽस्मिन्सूरिषुक्रमात् । कक्कमूरिगुरुर्जज्ञे विज्ञवर्ण्यगुणाश्रयः ॥ तत्रावतिगणेशत्वं, केचनश्राव कानवाः । वीरोरसिग्रंथियुग्मं वीक्ष्यासन् दून मानसाः ॥ स्थविराणं पुरः प्रोचुर्गन्थियुग्मं प्रभु रसः । कुशोभाकारिपूजायां, कथंभो ! नापसार्येते ॥ माहुर्न पुनर्वाच्य, मिदंवाचाऽपिबालिशः । तदारत्नप्रभाचार्यै र्नोत्सारितमिदंयतः ॥ किं सूत्रधारा न तदा, सम्पत्तिर्नधनस्य वा । विचिन्त्य पूज्यैर्यद्येतत्, स्थापितं स्थापितं च तत् ॥ देवता निर्मितं विम्बं टङ्कघातं किमर्हति । मूलप्रतिष्ठाभङ्गश्च स्यादेवंविहितेजड़ाः || शिक्षिता अपि तैरेव, छन्नं सूत्रभृतं धनैः । प्रलोम्यभोजनोर्द्धते, तंलात्वाऽगुर्जिनालये || टंकै सन्तक्षितं यावत्, ग्रन्थि युग्मं ततोद्वयात् । निःसृते रक्तधारेद्राक्, सूत्रधारोममार च ॥ न तिष्ठति ततोक्तं, निःसरत्कथमप्यथ । विज्ञायोपासकाः सर्वेऽमिलन्नत्यन्तदुःखिताः || Jain Education International For Private & Personal Use Only ३९१ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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