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________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३२१ नाम देवगुप्रसूरि रख दिया। श्रीसंघ यात्रा कर वापिस लौट आया। आचार्य कक्कसूरिजी महाराज श्रीसेद्धाचल की शीतल छाया में रह कर अन्तिम सलेखना करने में सलग्न हो गये । आचार्यश्री कक्कसूरिजी महाराज महान प्रतिभाशाली एवं लब्ध सम्पन्न होने से अपने जीवन में जैनधर्म की खूब उन्नति की। और अन्त में आप श्रीमान आबू गिरिराज की यात्रार्थ पधारे और वहाँ की गेहन केन्द्राएं में रह कर परमनिर्वृति में ध्यान कर रहे थे। जब आप अपने योग बल से शेष आयुष्य को जान लिया तो अपने सेवा करने वाले साधुओं को कह दिया कि अब मेरा आयुष्य केवल १८ दिन का है मुझे अनशन ब्रत करवा दें बस । सूरिजी अनशन व्रत धारण कर लिया इस बात की खबर होते है चन्द्रावती शिव पुरादि अनेक नगरों के लोग सूरिजी के अन्तिम दर्शनार्थ आये और अनेक प्रकार के त्याग वैराग्य भी किये अन्त में वीर संवत् ३९१ अक्षय तृतीय के दिन आप परम समाधि पूर्वक काल कर स्वर्ग में अवतीर्ण हुए । उपस्थित श्री संघ ने बड़े ही रंज के साथ आपका निर्वाण महोत्सव किया और परिनिर्वाणार्थ का योस्सर्गादि विधिविधान कर आपश्री के जीवन के शुभ कार्यों का अनुमोदन किया। पट्ट तेरहवें लब्धि सम्पन्न ककसू रि शुभ नाम था । जैन बनाना शान्ति करवाना यही आपको काम था । उपकेश में उपद्रव हुआ जब संघने इन्हें बुलाया था। अष्टम तप करने से देवी आ कर शीश झुकाया था । पूज्यवर ! इन मूर्ख लोगों ने शुभ प्रतिष्ठा भंग किया। टाँकी लगा कर ग्रन्थी छेदाई जिसका ही ये फल लिया । भवितव्यता टारी नहीं टरती रक्त धारा अब बन्द करो। विधि बतलाई वृहद् शान्ति की सब मिल उसे जल्दीकरो ॥ तातड़े बाफना बलह कर्णावट श्रीमाल कुल मोरख थे। विरहट श्रेष्टि गौत्र ये नव दक्षण दिश में सुरक्षक थे ॥ संचेती आदित्यनाग भूरि भाद्र चिंचट कुमट कनोजिये थे। डिडू लघुश्रीष्टि ये नव वामेदिश पंचामृत लिये थे । मंत्राक्षर और क्रिया विधि से शान्ति स्नात्र पढ़ाई थी। कृपा थी गुरुवर की जिसमें शान्ति सर्वत्र छाई थी। ऐसे सद्गुरु के भक्तजन शुद्ध मन ध्यान लगाता है। इस लोक और परलोक में मन वाच्छित फल पाता है । इति भगवान पार्श्वनाथ के तेरहवें पट्टधर आचार्य श्रीकक्कसूरिजी शासन के उद्योतक हुए। ३९५ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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