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________________ वि० सं० ११५ – १५७ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास भी किये थे, पर उसकी आशा पूर्ण नहीं हुई, अतः एक दिन राजा ने ब्राह्मणों को एकत्र कर ब्रह्मभोज दिया तथा दक्षिणा में पुष्कल द्रव्य का दान देकर प्रार्थना की कि भूषियों मेरे पुत्र नहीं है अतः आप प्रसन्न होकर ऐसा उपाय बतलावें कि जिससे मेरा मनोरथ सफल हो ? ब्राह्मणों ने खुश होकर कहा राजा तेरे पुत्र तो होगा पर एक बात याद रखना कि वह १६ वर्ष तक उत्तर दिशा में न जाय यदि कभी भूल चूक कर उत्तर दिशा में चला गया तो उसको इसी शरीर से पुनर्जन्म लेना होगा इत्यादि भूदेवों के आशीर्वाद को राजा ने शिरोधार्य कर लिया और उन ब्राह्मणों को और भी बहुतसा द्रव्य देकर विसर्जन किये । राजा के चौबीस रानियें थी, जिसमें चम्पावती रानी के गर्भ रहा जिससे राजा बड़ा ही हर्षित हुआ और ब्राह्मणों के वचन पर श्रद्धा भी होगई गर्भ के दिन पूर्ण होने से राजा के वहां पुत्र का जन्म हुआ राजा ने बड़े ही महोत्सव किया और याचकों को दान एवं सज्जनों को सन्मान दिया और बारहवें दिन उनका नाम 'सज्जन कुँवर' रक्ख दिया राजकुँवर का पाँच धायें से पालन पोषण हो रहा था, जब कुँवर पांच वर्ष का हुआ तो अध्यापक के पास पढ़ने के लिये भेज दिया और बारहवर्ष में तो वह सर्व कला में निपुण बन गया इतना ही क्यों पर राजकुँवर ने राज कार्य भी संभालने लग गया राजा को ब्राह्मणों की बात याद थी, अतः कुँवर को कह दिया कि तुम सर्वत्र जाओ आओं पर एक उत्तर दिशा में भूल चूक के भी नहीं जाना उत्तर दिशा में जाने की मेरी सख्त मनाई है, राजकुँवर ने भी पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करली और आनन्द में राज कारभार चलाने लगा मुत्सद्दी उमराव एवं जनता कुँवर के आधीन रह कर उनकी आज्ञा का अच्छी तरह से पालन करने लगे । एक समय उस नगर में किसी जैनाचार्य का शुभागमन हुआ और उन्होंने जनता को अहिंसा सत्य शील परोपकार आदि विविध विषयों पर उपदेश दिया आचार्य श्री ने मनुष्य जन्म की दुर्लभता राजसम्पति की चञ्चलता कुटम्ब की स्वार्थता और क्षणभंगुर शरीर की असारता पर जोरदार व्याख्यान दिया जिसको सुनकर राजकुंवर सज्जनकुमार को सूरिजी का कहना सोलह श्राना सत्य प्रतीत हुआ अतः उसने सूरिजी के चरण कमलों में श्रद्धा पूर्वक जैन धर्म को स्वीकार कर लिया 'यथा राजा तथा प्रजा' जब राजकुंवर ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया तो उमराव मुत्सद्दी तथा नागरिक लोग कब पीछे रहने वाले थे उन लोगों ने भी जैन धर्म स्वीकार कर लिया जैनधर्म का मुख्य सिद्धान्त अहिंसा परमोधर्म का है कि बिना अपराध किसी जीव को मारना तो क्या पर तकलीफ तक भी नहीं पहुँचानी अर्थात् पर जीवों को स्वजीव तुल्य समझना चाहिये । राजकुँवर ने जैन धर्म स्वीकार करके अपने राज में जीव हिंसा कतई बन्द करवा दी। जिससे ब्राह्मणों के यज्ञ यगादि कर्म सर्वत्र बन्द हो गये इतना ही क्यों पर राजकुँवर ने तो स्थान २ पर जैन मन्दिर मूर्तियों को प्रतिष्ठा करवा दी कि जनता सदैव सेवा पूजा भक्ति कर अपना कल्याण करने लगी इस कारण शिव मन्दिरों की पूजा बन्द सी हो गई कई थोड़े बहुत ब्राह्मण लोग ही शिवोपासक रहे वे लोग भी छाने छुपके शिव पूजा वगैरह करते थे । राजकुँवर ने केवल अपने नगर में ही नहीं पर आस पास का प्रदेश अर्थात पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशा में जैनधर्म का काफी प्रचार कर दिया और जीव हिंसा एवं यज्ञ भी सर्वत्र बन्द करवा दिये केवल एक उत्तर दिशा में राजकुँवर नहीं जा सका कारण, राजा ने पहले से इस बात का विचार कर रहा था कि उत्तर दिशा में जाने की मुझे मनाई क्यों की होगी ही मनाई कर रखी थी। फिर भी कुँवर ५५२ Jain Education international For Private & Personal Use Only [ भगवान् महावीर की परम्परा delibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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