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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अघटित प्रश्नों का प्रमाणिक उत्तर अाजकल विचार-स्वातन्त्र्य का साम्राज्य है, अतः जिस ओर दृष्टिपान किया जाता है उसी ओर अर्थात् सर्वत्र समाज, जातियां और धर्म के नाम से आक्षेपों तथा समालोचनाओं की वृष्टि दीख पड़ती है । वास्तव में समालोचना संसार में बुरी बला नहीं है। प्रत्युत समान तथा जाति की बुराइयों को निकालनेवाली, मार्गोपदेशिका, एवं उन्नतिदायिनी है। जिस समाज में जितने निःस्वार्थ तथा निष्पक्षपात आलोचक हैं, उतने ही उसके लिए अधिक लाभदायी हैं । किन्तु अनुभव ने इससे प्रतिकूल ही भान कराया । वर्तमान में कुत्सित भावनाओं को आगे रख कर आलोचक महोदय आक्षेपपुंज से कुआलोचना किया करते हैं। जिससे समाज को लाभ के बदले अधिकाधिक हानि पहुँचती जाती है और क्लेश के कारण समाज अस्तव्यस्त हो गया है।
आजकल के लिखे-पढ़े नवयुवकों के मगज में जितनी तर्कशक्ति है उतना उनके पास समय नहीं है कि जिस विषय का वे प्रश्न, तर्क एवं समालोचना करें उसके लिए वे उस समय का इतिहास देख सके कि उस समय कि क्या परिस्थिति थी, उस समय किन २ बातों की आवश्यकता थी इत्यादि । जब तक इन बातों का अध्ययन न कर लिया जाय तब तक व्यर्थ आक्षेप तथा तर्क करने में अपना तथा दूसरों का समय को ही बर्बाद करना है। दूसरे उन लोगों में यह भी एक विशेष गुण है कि न तो उनको अपने पूर्वजों पर विश्वास है और न प्राचीन प्रन्थों पर ही भरोसा है, फिर उनको समझाया जाय तो भी किस प्रकार ?कारण वे स्वयं अभ्यास करते नहीं और दूसरे कि सुनते नहीं।
खैर ! वे लोग क्या क्या प्रश्न करते हैं उनका थोड़ा सा नमूना पाठकों की जानकारी के लिए यहां दर्ज कर दिया जाता है जरा ध्यान लगाकर पढ़ें।
१-आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने क्षत्रियों को जैन बना कर उनको गौत्र एवं जातियों के बन्धन में बांध दिये अतः बहुत ही बुरा किया । जो विश्वव्यापी जैन धर्म था वह एक जाति मात्र में ही रह गया ?
२-आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने एक वीर बहादुर राजपूत वर्ग को ओसवाल बना कर उनकी वीरता को मिट्टी में मिला दी और उनको कायर कमजोर डरपोक बना दिया।
३-श्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि क्षत्रियों को ओसवाल बनाने के कारण ही शेष क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया।
४-आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के श्रोसवाल बनाने से ही जैनधर्म राजसत्ता-विहीन बन गया।
५-प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने श्रोसवाल बना कर बहुत बुरा किया कि इसमें अनेक गौत्र जातियां एवं मत पन्थ गच्छ फिरके और समुदायें बन गई। जिसमें इनकी समुदायिक शक्ति के टुकड़े २ हो कर पतन के गहरे गढ़े में गिर गई।
इत्यादि अनेक प्रश्न करते हैं और इन बातों के लिये बहुत से लोगों को शंका भी रहा करती है, पर जब तक वस्तु के असली स्वरूप को मनुष्य नहीं समझ पाता है तब तक शंकाएँ पैदा होना स्वभाविक ही है। पर मैं उन प्रश्नकर्ताओं का इस गरज से उपकार मानता हूँ कि उन्होंने इस प्रकार के प्रश्न करके उनके समा धान के लिए हमारे मगज में एक शक्ति पैदा की है। तथा मन के मन में भ्रम करना और उस भ्रम को हमेशा के
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