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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्ष लिये दिल में दबा कर रखने के बजाय प्रश्न करना कई गुणा अच्छा है कि जिससे शंका का समाधान भी हो सके और चित्त का भ्रम दूर होकर विश्वास की भी वृद्धि हो सके। महानुभावो ! पहिले तो आपको उस समय की परिस्थिति के इतिहास का अभ्यास करना चाहिये था कि उस समय इस महान कार्य की जरूरत थी या नहीं ? दूसरे यह भी सोचना चाहिये था कि भाचार्यरत्नप्रभसूरि ने ओसवाल एवं गौत्र जातियां आदि अलग २ जातियां बनाई थी या अलग २ जातियों का संगठन कर एक शक्ति एवं संगठनमय सुदृढ़ संस्था स्थापित करवाई थी ? तथा प्राचार्यश्री ने उन वीर क्षत्रियों को कायर कमजोर बनाये थे या उनकी शक्ति और भी बढ़ाई थी १ आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उन आचारपतित क्षत्रियों को जैन बना कर जैनधर्म को राजसत्ता विहीन बनाया था या जैनधर्म राजाओं का धर्म बन गया था। आचार्य रत्नप्रभसूरि के राजपूतो को जैन बनाने से जैनधर्म का क्षेत्र संकुचित बन गया था या विशाल बन गया था ?इत्यादि इन सब बातों को खूब दीर्घदृष्टि से सोचना चाहिये था। इन सब बातों का अभ्यास करके ही प्रश्न करना था। खैर, अब भाप भपने प्रश्नों का उत्तर भी सुन लीजिये। १०-श्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि ने क्षत्रियों को जैन बना कर उनको गौत्र एवं जातियों के बन्धन में बांध कर बहुत ही बुरा किया कि जो विश्वव्यापी जैनधर्म था वह एक जाति मात्र में ही रह गया। उ०-आचार्यरत्नप्रभसूरि जिस समय मरुधर में पधारे थे उस समय मरुधर अज्ञान से छाया हुआ था। घर २ में मांस, मदिरा एवं व्यभिचार की भट्टियें धधक रही थीं। वर्ण जाति उपजाति एवं पृथक २ मत-पंथों में विभक्त हुई जनता की शक्ति का दुरुपयोग हो रहा था । उस समय में अनेक कठिनाइयां और परिसहों को सहन करके केवल उन जीवों के कल्याण के लिये ही सूरिजी पधारे थे। इतना ही क्यों पर वसति के अभाव में जंगल में ठहर कर चार-चार मास तक भखे प्यासे रहते हुये भी उन पाखण्डियों के कठोर उपसगों को सहन किया था। सूरिजी ने अपने आत्मबल और उपदेश द्वारा उन आचारपतित क्षत्रियों की शुद्धि कर सब को समभावी बनाके उनका संगठन चिरस्थायी बनाये रखने की गरज से 'महाजनसंघ' नामक संस्था स्थापित करवाई थी, पर उस समय उनको स्वप्न में भी यह मालूम नहीं था कि हमारे पीछे ऐसे सपूत (!) जन्मेंगे कि आज हम जिन पृथक् २ वर्ण जाति मत पंथ वालों को एक सूत्र में प्रथित कर रहे हैं, वे आगे चल कर इस संस्था के टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे; जैसे कि पिछले लोंगों ने कर दिया और आज भी कर रहे हैं। इस पर भी तुरी यह कि अपना दोष पूर्वाचार्यों पर मढ़ना इससे अधिक कृतघ्नीपना भी क्या हो सकता है। दूसरे गौत्र और जाति का होना, यह भी रत्नप्रभसूरि ने नहीं बनाई है । उन्होंने तो एक 'महाजनसंघ' स्थापित करवाया था पर बाद में उस महाजनसंघ की ज्यों २ वृद्धि एवं उन्नति होती गई और उसके अन्दर ऐसे २ नामांकित पुरुष होते गये कि जिनके नाम से जातियां बनती गई, जो उन जातियों के नामों से पता लग सकता है, जैसे आदित्यनाग के नाम पर आदित्यनाग गौत्र, बापनाग से बापनाग गोत्र, तप्तमा मे तातभट गौत्र, भादा से भाद्र गौत्र इत्यादि। गौत्रों का होना बुरा भी नहीं है क्योंकि आचार्य रत्नप्रभसूरि के पूर्व भी गोत्र थे और गृहस्थ लोगों के विवाह शादी में इन गौत्रों की जरूरत भी रहती है कि वे कई गौत्र छोड़ के ही अन्य गोत्रीयों के साथ अपना विवाह करते हैं। Jain Education national For Private & Personal Use Only www.j१२ary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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