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________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास और जातियों के होने से धर्म की विश्व-व्यापकता मिट भी नहीं सकती है। भला ! गौत्र जाति के होने से ही धर्म की विश्व-व्यापकता मिट जाती हो तो भगवान महावीर के समय कश्यप गौत्र, जलंधर गौत्र, कोटन्य गौत्रादि गौत्र वाले जैनधर्म पालन करते थे । उसी समय आनन्दादि गाथापति अर्जुनमाली, सकडाल कुम्भार ऋषभदत्तादि ब्राह्मण और हरकेशी एवं मेत्तारियादि शूद्र लोग भी जैन धर्म पालन करते थे। जैनधर्म की विश्व-व्यापकता गौत्र जातियों से नहीं मिटी है, पर इसका असली कारण कुछ और ही है। और वह है संकुचित विचार वालों की संकुचितता कि जिन्होंने अपने संकुचित विचारों के साथ जैनधर्म के क्षेत्र को भी संकुचित बना दिया । यदि गोत्र एवं जातियां बनने से ही जैनधर्म की विश्व-व्यापकता मिट जाती हो तो आचार्य रत्नप्रभसूरि ने श्राचारपतित क्षत्रियो को जैन बनाने के बाद भी सैंकड़ों वर्ष तक अजैनों की शुद्धि कर उनको जैन बना कर पूर्व जैनों में शामिल मिलाये थे और उनकी संख्या करोड़ों तक पहुँच गई थी। यह कैसे बन सकता ? . खैर, जैनधर्म के लिये तो आपने अपने परमोपकारी महापुरुषों पर सब दोषारोपण कर दिया, पर आपके साथ ही बौद्ध एवं वेदान्ति धर्म है और उनमें अनेक गौत्र जातियां शामिल होने पर भी उनकी विश्वव्यापकता नहीं मिटी है तो एक जैनधर्म की विश्व-व्यापकता कैसे मिट सकती है। अतः आचार्य रत्नप्रभसूरि पर यह आक्षेप करना बिल्कुल मिथ्या और अनभिज्ञता का सूचक है कि उन्होंने क्षत्रियों को जैन बना कर उनके पृथक २ गौत्र एवं जातियां बना दी तथा जातियां बनाने से जैनधर्म जो विश्व-व्यापक था वह केवल एक जाति मात्र में रह गया, इत्यादि । ___ उन महापुरुषों ने तो जो किया था वह जीवों के कल्याण और जैनधर्म की उन्नति के लिये ही किया था और उनके इस प्रकार करने से ही जैनधर्म जीवित रह सका है। २ प्र०-प्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि ने एक वीर बहादुर राजपूतों को ओसवाल बना कर उनकी वीरता को मिट्टी में मिला कर उनको कायर कमजोर डरपोक बना दिया । १०-आचार्य रत्नप्रभसूरि ने न तो ओसवाल बनाये थे और न उनको कायर कमजोर ही बनाये थे। कारण आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपकेशपुर में प्राचारपतित क्षत्रियों को विक्रम पूर्व ४०० वर्षों में जैन क्षत्रिय बनाये थे, तब उपकेशपुर का अपभ्रंश नाम ओसियां तथा ओसियों के नाम से ओसवाल शब्द की उत्पत्ति हुई है। इसका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का है। फिर यह आक्षेप रत्नप्रभसूरि पर क्यों ? और इस प्रकार ग्रामों के नाम से तो और भी बहुत नाम हुये हैं जैसे महेश्वरीपुरी से महेश्वरी, खण्डेल से खण्डेलवाल, पाली से पल्लीवाल इत्यादि, तो क्या इन नामों से ही नुकसान हो गया। __ दूसरे ओसवाल कहलाने से ही कायर एवं कमजोर कहना भी एक भ्रम ही है क्योंकि आचार्यरत्नप्रभसूरि ने जिन क्षत्रियों को जैन बनाये थे न तो वे कायर कमजोर हुये थे और न उनकी संतान ही कायर कमजोर कहलाई थी । जरा इतिहास के पृष्ठों को उलट कर देखिये, राव उत्पलदेव की संतान ने २८ पुश्तों तक राज्य किया था। महाराज चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक और सम्राट सम्प्रति ने जैनधर्म पालन करते हुये ही बड़ी वीरता से राज का संचालन किया था। महामेघबाहन चक्रवर्ती खारबेल कट्टर जैन होते हुये भी उन्होंने भारत पर विजय कर चक्रवर्ती पद को प्राप्त किया था। सम्राट विक्रम भारत का राज बड़ी वीरता से करता हुआ भी जैन धर्म का पालन करता था। वल्लभी का शिलादित्य राजा, कान्यकुब्ज का चित्र Jain E१९४international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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