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________________ ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ] [ वि० पू० ४०० वर्ष गेंद राजा, ग्वलनेर का आम राजा, महाराष्ट्र के चोलवंश, राष्ट्रकूटवंश, पांड्यवंश, कलचूरीवंश, वगैरह, वगैरह, अनेक राजाओं ने जैनधर्म पालन करते हुये भी बड़ी वीरता से राज किया है । इतने दूर क्यों जाते हो, परमाहत महाराजा कुमारपाल के जीवन को पढ़िये तो आपको जैनों की वीरता का पता चलेगा कि कायर कमजोर थे या वीर थे। किसी भी धर्म के उपासकों को देखिये, वे सब के सब राजा नहीं होते हैं। कई राज करते हैं तो कई दीवान, प्रधान मन्त्री, महामन्त्री फौजी हाकिम वगैरह पद वाले होते हैं, तो कई व्यापार एवं कृषी कर्मवाले भी होते हैं । यही हाल जैनधर्म का था और इस प्रकार कई जैनों ने राज कर्मचारी पद को सुशोभित करते हुये भी अपनी वीरता का परिचय दिया था । कायरता तो उनके पास भी नहीं फटकती थी जिसके उज्जवल यश और धवल कीर्ति से इतिहास भरा पड़ा है। वीर यशोदित्य, शादूल, नारायण, त्रिभुवनसिंह, जसकरण, समर्थसिंह ठाकुरसी, जेतापाता, विमल, वस्तुपाल तेजपाल, समरसिंह, तेजसिंह, सुलतानसिंह वगैरह वगैरह हजारों वीर हुये । हाल थोड़े समय पूर्व संघवी इन्द्रराजजी, फतेहराजजी, बच्छराजजी, मुनोयत, सुन्दरदास नैणसी, मेहता नथमलजी, और मेहताजी विजयसिंहजी । इन्होंने ओसवाल कहलाते हुये भी क्षत्रियों से बढ़ चढ़ के वीरता के काम किये हैं । क्या कोई इतिहास का जानकर ओसवाल जाति पर कायरता और कमजोरी का कलंक लगा सकता है ? कदापि नहीं ! श्रोसवाल जाति में कायरता और कमजोरी होने का कारण क्षत्रियों से जैन बनाना नहीं है पर श्रोसवालों के खराब आचरण तथा दया का असली स्वरूप को न जानने वाले उपदेश ही हैं । जैसे धनमाल की कृपणता के कारण, आत्त ध्यान करना, दूसरे का बुरा चाहना, बाल विवाह, वृद्ध विवाह, कुजोड़ लग्न आदि कई कारण हैं कि वे अपने बुरे आचरणों से स्वयं कायर कमजोर बन बैठे हैं और उनका दोष पूर्वाचार्यों पर पर लगाते हैं। इससे अधिक अन्याय ही क्या हो सकता है ? वास्तव में जैनधर्म वीरों का ही धर्म है और वीर होगा वही जैनधर्म पालन कर सकता है। आज के जैनधर्मोपासक केवल नाम के ही जैन कहलाते हैं । जैनत्व तो इन लोगों से हजार हाथ दूर रहता है । यदि जैनी कहलाना हो तो सब से पहले वीर बनो जैसे पूर्व जमाने में थे। ___ ३ प्र.-श्रापार्य श्रीरत्नप्रभसूरि के क्षत्रियों को ओसवाल बनाने के कारण ही क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया। ___ उ-यह पहिले कहा जा चुका है कि रत्नप्रभसूरि ने क्षत्रियों को ओसवाल नहीं बनाये थे, पर 'महाजन संघ' बनाया था और उसकी स्थापना उपकेशपुर में हुई । बाद उपकेशपुर के लोगों ने अन्य स्थानों में जाकर निवास किया, इस हालत में वे लोग उपकेशपुर के होने के कारण उपकेशी कहलाये और भागे चल कर उनका वंश उपकेशवंश कहलाने लगा। वह शिलालेखों में सर्वत्र प्रसिद्ध है तथा विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में उपकेशपुर का नाम अपभ्रंश होकर ओसियां हो गया; जैसे जावलीपुर का जालौर, नागपुर का नागौर, माण्डव्यपुर का मॅडौर, नारदपुर का नाडौल, वैसे उपकेशपुर का श्रोसियां नाम पड़ गया। अत: ओसियों में बसने वाले श्रोसवाल कहलाये पर इस प्रकार श्रोसवाल नाम होने से क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया कह देना तो एक अनभिज्ञता की ही बात है; क्योंकि महाजनवंश स्थापन करने के पश्चात् १९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.aimeldiary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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