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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
करीब २००० वर्ष तक क्षत्रिय लोग जैन बन कर श्रोसवालों में शामिल होते आये हैं। फिर यह क्यों कहा जाय कि ओसवाल बनाने से ही क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया ?
क्षत्रियों के जैनधर्म से किनारा लेने का कारण श्रोसवाल होना नहीं है पर इसका कारण कुछ रही है । वह यह है कि एक जैनधर्म के नियम सख्त हैं जो संसार-लुब्ध जीवों से पलना मुश्किल है, दूसरे श्रोसवालों में जो नये जैन बनने वालों के साथ सहानुभूति पहिले थी वह बाद में नहीं रही। तीसरे सवालों का खुद का संगठन भी छिन्न-भिन्न हो गया था । कारण, एक तरफ तो शासन में छेद-भेद बाल नये मत गच्छ निकाल कर अपनी २ बाड़ाबन्दी में लग गये थे, जिससे समाज में राग द्वेष क्लेश काप्रह की भट्टियें धधकने लगीं और उनकी जो शक्ति जैनों को जैन बनाने में लग रही थी वही शक्ति जैनधर्म को नुकसान पहुँचाने में काम करने लगी । जब खास जन धर्म का प्रचार बढ़ाने वाले साधुओं का ही यह हाल था तो उनके उपासकों के लिये तो कहना ही क्या था ? वे तो उन साधुत्रों के हाथ के कठपुतले ही बने हुए थे। जैसे वे नचाते वैसे ही नाचते थे। दूसरी ओर आगे चल कर उस ओसवाल समाज में भी एक ऐसा उत्पात मच गया कि जिसके दो टुकड़े बन गये जो लोड़ा साजन और बड़ा साजन के नाम से आज भी जीवित है; इत्यादि कारणों से क्षत्रियों ने जैनधर्म से किनारा ले लिया है न कि ओसवाल बनने से - ४ प्र० - आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के ओसवाल बनाने से ही जैनधर्म राजसत्ता -विहीन बन गया । उ०—--यह केवल समझ की भ्रांति है कि श्रोसवाल बनाने से जैनधर्म राजसत्ता विहीन बन गया, पर राजसत्ता विहीन होने का कारण ओसवाल बनाना नहीं किन्तु इसका मुख्य कारण उन राजा महाराजाओं को जैनधर्म का सत्य उपदेश नहीं मिलना ही है। राजा महाराजाओं को सदुपदेश क्यों नहीं मिलता है इसका कारण साधुत्रों में ऐसे ज्ञान का अभाव है, क्यों कि सब से पहिले तो साधु बनते समय यह नहीं देखा जाता है कि यह व्यक्ति साधुपद के योग्य है या अयोग्य ? जब अयोग्यों को साधुपद दे दिया जाता है तो वे अपनी उदरपूति में ही अपने जीवन की सफलता समझ कर समाज का भला करने के बजाय समाज के भारभूत बन जाते हैं । कई साधु ऐसे भी होते हैं कि जिन्होंने एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त का मुंह भी नहीं देखा होगा | राजा महाराजा तो दूर रहे पर पूर्वाचार्यों के बनाये हुए श्रावकों को भी वे संभाल नहीं सकते हैं। उदाहरण के तौर पर देखिये एक गुर्जर प्रान्त में आज करीब २००० साधु साध्वियां विद्यमान हैं, फिर भी एक दो शताब्दी पूर्व कई २०-२५ जातियों के हजारों लाखों लोग जैनधर्म पालन करते थे, प्रायः वे सब जैन धर्म को त्याग कर जैनेतर बन गये हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि साधु अपनी सुविधा के लिए बड़े बड़े शहरों में रहना पसन्द करते हैं जहाँ आवश्यकता नहीं, वहाँ १००-१५० एवं २०० साधु साध्वियां एकत्र ठहर जाते हैं । तब जहाँ ग्राम में भ्रमण कर उपदेश की खास जरूरत है वहाँ कोई जाते तक भी नहीं । यदि कभी विहार करते जा निकले तो उनके पण्डित लेखक नौकर चाकर आदि का ठाठ एवं खर्चा देख वे प्रामड़ा के लोग दूर से ही घबरा जाते हैं। तब दूसरे धर्म वाले लोग घूम घूम कर उनको उपदेश कर तथा कई प्रकार की सुविधाएं बता कर एवं आराम पहुँचा कर अपने धर्म में मिला लेते हैं । जब पूर्वाचार्यों के बनाये श्रावकों का ही यह हाल है तो राजा महाराजाओं को उपदेश देने के लिए तो हम आशा ही क्यों रक्खें ? फिर भी तुर्रा यह कि वर्तमान में अपना कसूर है वह पूर्वाचार्यो पर डाल दिया जाता है । यह एक प्रकार से कृतघ्नीपना ही है ।
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