________________
ओसवाल जाति की ऐतिहासिकता ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
जैन साधुओं की ही क्यों पर आज तो जैनाचार्यों की संख्या भी इतनी बढ़ रही है कि कई दर्जन प्राचार्य होने पर भी किसी प्राचार्य ने किसी राज-सभा में जाकर व्याख्यान दिया हो ऐसा कभी सुनने में नहीं आता है । हाँ, यदि किसी श्रावक की कोशिश से यदि किसी छोटे बड़े राजा ने एक दिन किसी आचार्य का व्याख्यान सुन लिया हो तो वे अखबारों में, पुस्तकों में, छोटी बड़ी पत्रिकाओं में, अपने नाम के आगे यह टाइटिल लगा देते हैं कि अमुक राजा प्रतिबोधक श्राचार्य श्री...... बस इतने में आप कृतकृत्य बन जाते हैं । पर अब जमाना ऐसा नहीं है। जमाना पुकार पुकार कर कहता है कि कुछ काम करके दिखाओ। समझ गये न ? जैनधर्म राजसत्ता विहीन होने काकारण रत्नप्रभसूरि नहीं पर उनको जैनधर्म का उपदेश नहीं मिलना है । आचार्य रत्नप्रभसूरि ने तो क्षत्रियों को जैनधर्मी बना कर जैनधर्म को राष्ट्रीय धर्म बना दिया था यही कारण है कि रत्नप्रभसूरि के बाद भी अनेक राजाओं ने जैनधर्म के परमोपासक बन कर जैनधर्म का पालन एवं प्रचार किया था।
५ प्र०--आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल बना कर बहुत बुरा किया कि इसमें अनेक गौत्र जातियां एवं फिरके समुदाय बन गये, जिससे इनकी सामुदायिक शक्ति टुकड़े २ हो कर पतन के गहरे गढ़े में गिर गई।
उ०--क्या आपको यह विश्वास है कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने ही पृथक् २ गौत्र, जातियां, गच्छ समुदाय और फिरके बनाये थे ? आप पहिले पढ़ चुके हो कि प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने तो क्षत्रिय वैश्य ब्राह्मण लोग जो पृथक् २ मत-पंथ में विभाजित हो अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते थे, उनको उपदेश देकर एवं संगठन का महत्व बतला कर उनके हृदय के चिरकाल के नीच-ऊंच के जहरीले भावों को मिटा कर उन सब को समभावी बना कर 'महाजन संघ' रूपी एक सुदृढ़ संस्था स्थापन की थी और उनमें जैसे रोटी-व्यवहार था वैसे बेटी-व्यवहार भी चालू हो गया और वह चिरकाल तक चलता भी रहा था । यद्यपि उस महाजनसंघ में नगर के नामों से कई शाखायें चल पड़ी थों जैसे उपकेशवंश, श्रीमाल वंश, प्राग्वटवंशादि, तथापि उन सब का रोटी-बेटी-व्यवहार एक ही था। शिलालेखों से पता मिलता है कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी तक तो इन सबके प्रायःरोटी बेटी-व्यवहार शामिल था। बाद में संघ के स्वार्थी अग्रेसरों के मगज में अहंपद का कीड़ा घुस गया। किसी को धनमद, किसी को राजसत्ता का अहंकार, किसी को ऐश्वर्य एवं संख्या बल का गर्व। बस, एक ने कहा कि हम तुमको बेटी नहीं देंगे। दूसरे ने अपनी चली वहां कह दिया कि हम तुमको बेटी नहीं देंगे । पर उस समय सब की संख्या अधिक होने से किसी को तकलीफ नहीं हुई, अतः न रक्खी परवाह और न किया प्रयत्न । बस, एक एक के दिल खिंचते ही गये, बाद तो दिन निकलने पर यह भाखने लगे कि हम कभी शामिल थे ही नहीं । फिर भी उस समय के आचार्यों ने धर्म कायें, पूजा-प्रभावना, स्वामिवात्सल्य में उनका लेना-देना खाना-पीना अलग नहीं होने दिया! अतः रोटी व्यवहार शामिल रहा और बेटी-व्यवहार टूट गया । रोटी-व्यवहार शामिल होते हुए भी बेटी-व्यवहार टूट जाना एक पार्टीबन्दी का कारण था । यही कारण था कि अपनी २ पार्टी बन्ध गई और अपनी पार्टी में ही बेटी का लेन देन होने लगा।
बस, उन अभिमान के पुतलों के घर में अभिमान के परमाणु चारों ओर घूमने लगे। क्या श्राहार में और क्या पानी में जहाँ देखो वहाँ उनकी ही प्रबलता थी । भला इस हालत में उनके घरों से श्राहार
For Private & Personal Use Only
www.१९७ry.org
Jain Education International