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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पानी ले जाकर गौचरी करने वाले साधु कैसे बच सकते ? उनका असर आये बिना कैसे रह सकता ? जैन साधु जिन्होंने राग-द्वेष का त्याग कर दीक्षा ली थी, पर संसर्ग के कारण उनके मगज में भी ऐसे कीड़े पैदा हुये कि उन्होंने जैनसमाज को टुकड़े २ कर अपने २ गच्छ बना कर उनको कई भागों में विभाजित कर डाला । अतः एक ही वीर शासन में अनेक गच्छ मत-पंथ-समुदाय बन कर पूर्व संगठन के टुकड़े २ हो गये । इसका दोष पूर्वाचायों पर मढ़ना, यह कितना अन्याय है । क्या प्राचार्यरत्न प्रभसूरि ने महाजनसंघ स्थापित किया था उस समय उनको स्वप्न में भी यह ख्याल था कि आज मैं भिन्न २ जातियों के शक्तितन्तुओं को एकत्र कर संगठन का किला बना रहा हूँ, उसको मेरे पीछे ऐसे सपूत (!) जन्मेंगे कि वे इस किले को तोड़ फोड़ कर एक-एक पत्थर अलग २ कर डालेंगे और उसका सब दोष मेरे पर मढ़ देंगे ?
इस बात को इतिहास डंके की चोट बतला रहा है कि महाजनसंघ के लिये प्राचार्यरत्नप्रभसूरि ने जो जो नियम निर्माण किये थे और महाजनसंघ उन नियमों का ठीक तौर पर पालन करता गया वहाँ तक नो इस महाजनसंघ की खूब उन्नति होती गई । यहाँ तक कि संसारभर में जगतसेठ, नगरसेठ, टीकायत पंच, चौधरी वगैरह सन्मानपूर्वक पद थे वे सबके सब महाजनों को ही दिये गये थे। महाजनों ने इन पद की जुम्मेवारीको अच्छी तरह समझ कर अपने न्यायपूर्वक उपार्जित द्रव्य को देश समाज और धर्म के हित व्यय करने में कुछ भी उठा नहीं रक्खा था । इस बात किसी से छिपी नहीं है।
समय की बलिहारी है कि एक समय श्रोसवाल जाति उन्नति के उँचे शिखर पर पहुँच गई थी, वही जाति श्राज अवनति के गहरे गड्ढे में जा पड़ी है। बस, परिवर्तनशील संसार इसी का ही नाम है। इस में यों तो अनेकों कारण है पर मुख्य कारण उस कृतघ्नीपने का ही है जो इन प्रश्नों से श्राप ठीक तौर पर समझ गये होंगे कि मांस, मदिरा व्यभिचारादि दुर्व्यसन से नरक के मार्ग जाते हुओं को श्राचार्य श्रीरत्नप्रभसूरि ने अनेक कठनाइयों को सहन कर उनको उपदेश द्वारा जैनधर्म के सन्मार्ग पर लाकर स्वर्ग मोक्ष के अधिकारी बनाये; जिसके बदले में वे आक्षेप करते हैं ऐसे मनुष्यों की क्या कभी उन्नति हो सकती है ? खैर ! अब भी समय है कि अपने अधर्म विचारों को हटा कर उन परमोपकारी महात्माओं का उपकार समझे, इत्यालम् । ___प्र०--कई लोग यह भी कहा करते हैं कि जैनियों की दया अहिंसा ने भारत को गारत बना दिया है ?
उ०-यह उन लोगों के अधूरे अभ्यास का ही परिणाम है। कारण, यदि ठीक तौर से अभ्यास कर लिया होता तो यह कदापि नहीं कह सकते कि जैनियों की अहिंसा ने भारत को गारत बना दिया। या यह कहने वाले लोग अहिंसा के स्वरूप को ही नहीं समझते होंगे कि अहिंसा किसको कहते हैं ?
अहिंसा एक अमोघ शस्त्र है जिसके सामने बड़े बड़े हिंसकों ने अपना सिर मुकाया है । अहिंसा में दिव्य शान्ति है, महान क्रान्ति है और अचिन्त्य शक्ति है । एक समय भारत में हिंसकों की प्रबलता थी
और उस हिंसा के जरिये भारत क्लेशतम बन गया था। उस समय भगवान् महावीर ने अहिंसा का उपदेश भारत के कोने २ में पहुँचा दिया था, तब जाकर जनता ने शान्ति का श्वास लिया ।
यह तो बहुत दूर के समय की बात है पर श्राप वर्तमान में ही देखिये कि एक ओर तो हिंसावादी हैं कि अनेक प्रकार की हिंसा वृत्ति से काम लेते हैं तब दूसरी ओर महात्मा गाँधी हैं कि जो अहिंसा को एक
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