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________________ वि० पू० २८८ वर्षे ] रण प्रा चार्य देवसूरिजी महाराज एक महान प्रतिभाशाली दया के अवतार क्षमा के सागर जैनधर्म के अद्वितीय प्रचारक महान आचार्य हुये । आपके विषय में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है । कारण आप आचार्य कक्कसूरी के जीवन में पढ़ चुके हैं कि आप श्रीमान् कच्छभूमि के सुपुत्र थे । अर्थात भद्रावती नगरी के राजा शिवदत्त के प्यारे लघु पुत्र थे । आपकी कान्ति की प्रभा मध्यान्ह के सूर्य के समान चारों ओर चमकती थी । आप प्रबल प्रतापी एवं पुरुषार्थी थे आप युवकवय में पदार्पण करने पर भी व्रत पालन करने में मेरू की भांति डग थे । आपके जीवन की परीक्षा एक दिन देवी के द्वार ति लोगों द्वारा हो रही थी पर न जाने आपके पुण्य ने ही श्राचार्य श्री कक्कसूरिजी को मार्ग की करवा कर ह्मचर्यं क M चलाये थे । सूरिजी ने उन घातकी लोगों को उपदेश दे कर देवगुप्त को मरणान्त संकट से बचा कर नूतन जीवन प्रदान किया था। जिस उपकार को कृतज्ञ मनुष्य एक भव में तो क्या पर भवोंभव में भी नहीं भूल सकता यही कारण था कि देवगुप्त ने उसी समय अपना जीवन सूरिजी के चरण कमलों में अर्पण कर दिया था । इतना ही क्यों पर देवगुप्त ने जिस घातकी कुरुढ़िका का अनुभव किया था उसको जड़मूल से नष्ट करदेने का भी दृढ़ संकल्प कर लिया था । क्योंकि जिस प्रकार श्राज "मैं मेरे जीवन से हाथ धो बैठा था उसी प्रकार इन घातकी लोगों ने दूसरे लोगों का प्राण हरण किया होगा । जब मनुष्य की ही यह दशा है तो विचारे निरपराधी मूक पशुओं का तो कहना ही क्या ? एक मनुष्य स्वल्प सुखों के लिए एवं मौज शौक या खाना पीना और भोग-विलास में अपना जीवन नष्ट कर देता है । इसकी बजाय तो ऐसी कुरुड़ियों का उन्मूलन कर अपने भाइयों का संकट दूर करने में जीवन व्यतीत किया जाय तो स्व-पर आत्मा का उद्धार एवं महान् उपकार हो सकता है । अतः मैं यदि मनुष्य हूँ और अपने कर्तव्य को समझता हूँ तो सब से पहिला मेरा कर्तव्य इसी घातक प्रवृति को देश निकाला कर देना ही है और अपनी जननी जन्मभूमि को महान संकट से बचाकर इसका उद्धार करूँ, और अपने भाइयों को पूर्णतः सुखी बनाने में सफल हो जाऊ ं । इस प्रकार की अनेक प्रतिज्ञायें राजकुंवर देवगुप्त ने की और उसी प्रकार से पहिले तो अपनी राज सत्ता से और बाद में तप, संयम, और आत्मसत्ता एवं उपदेश द्वारा कच्छ भूमि का उद्धार किया । अर्थात कच्छ भूमि को अहिंसा एवं जैनधर्म मय बना दिया । वे ही देवगुप्त श्राज आचार्य पद विभूषित हो हजारों साधु साध्वियों के साथ भूमण्डल पर जैनधर्म का प्रचार करते हुये विहार कर रहे हैं । [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ३१२ - ग्राचार्य देवगुप्तसूरि आचार्योऽथ च देवगुप्त नवमो राजात्मजो विज्ञराट् । कुर्वन् जैनमत प्रचार मनिशं पाञ्चाल देशं गतः || आचार्याय सिद्ध पुत्र विजयी शिष्येभ्य आज्ञां ददौ । यूयं यात मनस्विनः सुकुशलाः सर्वत्र धर्मेच्छया ॥ कार्य इस प्रकार से धर्म के नाम पर चिरकाल से जमी हुई कुप्रथाओं को एक दम उखेड़ फेंकना कोई साधा'न था, यही कारण थाकि सूरिजी के इन भागीरथ कार्यों में उन धर्म के ठेकेदार पाखण्डियों ने अने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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