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वि० सं० ११५-१५७ वर्ष]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
को वन्दन किया और कहा कि पूज्यवर ! आपने हम सब लोगों को जीवन प्रदान किया है और जिन चार पुत्रों के लिये फरमाये वे चारों पुत्र हाजिर है कृपा कर उनको दीक्षा देकर हमारे कुल का उद्धार करावे । चन्द्रादि चार पुत्रों को सेठानी ने पहले ही समझा दिये थे अतः वे चारों पुत्र दीक्षा लेने को तैयार हो गये । मुनियों ने सेठानी के दिये हुए चारों नवयुवकों को लेकर आर्य बञसेनसूरि के पास आये और सूरिजी ने उनको दीक्षा का स्वरूप सममा कर विधि विधान से दीक्षा दे दी।
उस दुकाल के अन्दर बहुत से मुनियों ने स्वर्गवास कर दिये थे और बचे हुए मुनियों में केवल एक यक्षदेवसूरि ही अनुयोगघर रहे थे और वे भ्रमण करते सोपारपदन में पधारे थे आचार्य यक्षदेवसूरि के जीवन में पाठक पढ़ आये थे कि यक्षदेवसरि ने अपने साधु साध्वियों के अलावा आचार्य बज्रसूरि के शिष्य समुदाय से ५०० साधु ७०० साध्वियों वगैरह बचे हुए साधुओं को आगमों की वाचना देने के लिये सोपारपट्टन को ही पसन्द किया था कारण ऐसे बड़े नगर बिना इतने साधु साध्वियों का निर्वाह भी तो नहीं हो सकता था । ठीक उसी समय आर्य बज्रसेनसूरि चार शिष्यों को दीक्षा देकर प्राचार्य यक्षदेवसूरि के पास आकर प्रार्थना की कि इन चारों नूतन साधुओं को भी आप आगमों की वाचना देने की कृपा करावे यह महान् उपकार का कार्य है यक्षदेवसूरि ने कहा कि इतना कहने की आवश्यकता ही क्या है यह तो हमारा खास कर्तव्य ही है हम और श्राप पृथक् पृथक् नहीं पर शासन की सेवा करने में एक ही हैं । अतः सब साधु साध्वियों को आगमों की वाचना देना सूरिजी ने प्रारम्भ कर दिया परन्तु भवितव्यता ने ऐसा दृश्य बतलाया कि वाचना का कार्य तो चलता ही था बीच में ही आर्य बज्रसेनसूरि का स्वर्गवास हो गया । युग-प्रधान पट्टावली में आर्य बनसेनसूरि के लिये कहा है कि ९ वर्ष गृहस्थावास ११६ वर्ष सामान ब्रत और ३ वर्ष युग-प्रधान पर रहकर १२८ वर्ष का सर्व आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गवास पधार गये थे । अतः चन्द्रादि चार मुनियों को तथा दुकाल में बचे हुए साधुओं को श्रागमों की वाचना आचार्य यक्षदेवसूरि ने ही दी थी इतना ही क्यों पर चन्द्रादि चार मुनियों के शिष्य समुदाय बनवा कर उन चारों को सूरि पद भी श्राचार्य यक्षदेवसूरि ने ही दिया था तत्पश्चात् प्राचार्य चन्द्रसूरि आदि ने सूरिजी का परमोपकार मानते हुए सूरिजी की आज्ञा लेकर अन्यत्र विहार किया अतः दुकाल से बचे साधु साध्वियों तथा चन्द्रादि चारों सूरियों पर आचार्य यक्षदेवसूरि का महान उपकार हुआ है तथा उन चारों सूरीश्वरों से ही चल कर ८४ तथा ८४ से भी अधिक गच्छ हुए वे सबके सब उपकेशगच्छ एवं आचार्य यत्तदेवसूरि का अागे महान उपकार समझ कर उन्हों का पूज्य भाव से आदर सत्कार किया करते थे । इति बज्रसेन संबन्ध ।
इत्याकर्म्य मुनिः प्राह गुरुशिक्षा चमकृतः । धर्मशीलेशृणु श्रीमद्वज्रस्वामिनिवेदितम् ॥ १९०॥ स्थालीपाके किलैकत्र लक्षम्ले समीक्षिते । सुभिक्षं भावि सविषं पार्क मा कुरु तथा ॥१९॥ सापि प्रायः प्रसादं नः कृत्यैतत्प्रतिगृह्यताम् । इत्युक्तवा पानपूरेण प्रत्यलाभि तया मुनिः ॥१९२॥ एवं जातेऽथ संध्यायां वहिब्राणि समाययुः । प्रशस्यशस्यपूर्णानि जलदेशान्तराध्वना ॥१९३॥ सुभिक्षं तत्क्षणं जज्ञे ततः स सपरिच्छदा। अचिन्तयदहो मृत्युरभविष्यदरीतितः ॥१९॥ जीवितव्यफलं किं न गृह्यते संयमग्रहात् । वज्रसेन मुनेः पावें जिनवीजस्य सद्गुरोः ॥१९५।। ध्यात्वेति सा सपुत्राथ व्रतं जग्राह साग्रहा। नागेन्द्रो निर्वृतिश्चन्द्रहः श्रीमान् विद्याधरस्तथा ॥१९६॥
अभूवंस्ते किंचिदूनदर्शपूर्वविदस्ततः । चत्वारोऽपि जिनाधीशमतोद्वा (दा) रधुरंधरा ॥१९७॥ प्र० च० Jain Edu lygternational
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