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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ राजा का चलाया नहीं है हाँ विक्रम की नौवी शताब्दी के एक शिलालेख में सब से पहला संवत् के साथ विक्रम का नाम लिखा हुआ मिलता है जैसे कि -- "वसु नव (अ) टौ वर्षागतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य । वैशाखस्य सियाता (यां) रविवार युत द्वितीयायाम् ।" यह शिलालेख धोलपुरा से मिला है राज चण्डमहासन के समय वि० सं० ८९८ का है इसमें पहला पहल संवत् के साथ विक्रम नाम जुड़ा हुआ है _कही-कहीं जैन विद्वानों ने उज्जैन के राजा बलमित्र को विक्रम की उपाधि से भूपित किया है । राजा बलमित्र था भी प्राक्रमी एवं विक्रम। उसका राज भरोंच में था परन्तु उसने उज्जैन पर चढ़ाई कर शकों को पराजित कर उज्जैन का गज अपने अधिकार में कर लिया उस विजय के उपलक्ष में उसने नया संवत् चलाया इत्यादि । परन्तु इसमें भी वह सवाल तो ज्यों का त्यों खड़ा ही रहता है कि राजा बलमित्र ने अपनी विजय के उपलक्ष में नया संवत् चलाया तो उस समय से ही संवत् के साथ बल एवं विक्रम शब्द क्यों नहीं चलाया ? इसके लिए यह कहा जा सकता है कि राजा बलमित्र ने माला प्रान्त को विजय करके आपना नाम की अपेक्षा मालवा शब्द को संवत् के साथ जोड़ देना विशेष गौरव समझा होगा और संवत के साथ मालव शब्द को जोड़ दिया हो तो यह ठीक समझा जा सकता है। अब हम समय को देखते हैं तो संवत् प्रारम्भ और बलमित्र का समय ठीक मिलता-जुलता है अतः जैन लेखकों का लिखना सत्य प्रतीत होता है कि विक्रम यह राजा बलमित्र का विशेषण है और मालव संवत् को राजा बलमित्र ने अपने मालव विजय के उपलक्ष में ही चलाया था। जैनाचार्यों ने राजा विक्रम के लिये बड़े बड़े ग्रन्थों का निर्माण किये हैं और राजा विक्रम को जैनधर्म का प्रचारक लिखा है तथा राजा विक्रम ने उज्जैन से तीर्थ शत्रुजय का विराट् संघ निकाला और कई मन्दिर भी बनाया इत्यादि यदि राजा बलमित्र को ही विक्रम समझ लिया जाय तो यह बात सर्वथा मिलती हुई है कारण राजा बलमित्र जैन धर्म का परमोपासक था उसने ५२ वर्ष भरोंच नगर में राज किया था बाद उज्जैन का राज अपने अधिकार में करके ८ वर्ष तक रज्जैन में भी राज किया यदि उसने उज्जैन से शत्रुजय का संघ निकाला हो तो यह असंभव भी नहीं है । राजा बल मित्र कालकावार्य के भाने न लगते थे भाचार्य खपटसरि आचार्य पादलिप्तसूरि उपाध्याय महेन्द्र वगैरह राजा बलमित्र की प्राग्रह से चिरकाल तक भरोंच में ठहरे थे और कई वादियों को वहां पराजय भी किये थे अतः उनके जैन होने में किसी प्रकार का संदेह भी नहीं हो सकता है। __ कई लोग यह भी कहते हैं कि मालव संवत् के कई वर्षों के बाद गुप्तवंशी चन्द्रगुप्त (द्वितीय ) राजा हुआ विक्रम उस राजा की उपाधि थी और उसको माल व संवत् के साथ जोड़ देने से ही मालव संवत् का नाम विक्रम र वत हुआ है परन्तु इस कथन के लिये कोई भी पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता है जैसे राजा चलमित्र के लिये मिलता है । विशेष निर्णय विद्वानों की विचार श्रेणी पर ही छोड़ दिया जाता है । -रामचन्द्रसूरिकृत विक्रमचरित्र २-शुभशील गणीकृत विक्रमादित्य चरित्र ३-देवमूर्तिकृत वि० च० (स० १४६.) (स० १९४९) ४६८ [श्री वीर परम्परा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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