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वि० सं० ११५ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास १६--प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरि ( तृतीय )
आचार्यः स हि सूरि सूर्य विदितो नाम्ना तु रत्नपभः । शोभा तप्तभट्टीय वंश जनता वर्गस्य दीक्षां गतः ॥ त्यक्त्वा मास विवाहितां निजवधू कोटिंच वित्तंयुधः । ज्ञात्वा पूर्वग रत्नभूरि-वरित शिक्षां-व तस्मादधौ ॥
चार्य रत्नप्रभसूरि-इन तीसरे रत्नप्रभसूरि का यश एवं प्रभाव की पताका तीनों लोक में । फहरा रही थी। आप ॐकार नगर के तप्तभट्ट गोत्रिय शाह पेथा की भार्या कुल्ली के जो राजसी नाम के होनहार पुत्र रत्न थे। आपकी बालक्रीडायों का वर्णन पट्टावलीकारों
ने बहुत विस्तार से किया है । एक दो उशहर यहां बतला दिये जाते हैं कि बालकों की
___ क्रीडा किस प्रकार भविष्य सूचक होती हैं । शाह पेथा का घराना पुश्तों से जैनधर्म का परमोपासक था जिसमें आपकी धर्मपत्नी कुल्ली तो अपना जीवन ही धर्म करने में व्यतीत करती थी। जिन बालकों के माता पिता धर्मज्ञ होते हैं उन्हों का असर बालबच्चों पर अवश्य पड़ ही जाता है। शाह पेथा धनकुबेर एवं करोड़ाधीश था और उनके सात पुत्रियों पर राजशी एक ही पुत्र था अतएव माता पिता का उस पर अधिक से अधिक स्नेह होना एक स्वभाविक ही बा। राजशी छः वर्ष का हुआ तो कई मिष्टान्नादि पदार्थ देकर बहुत से लड़कों को अपना सहचारी बना लिया और उन साथियों के साथ क्रीडा करता था कभी २ अपनी माता के साथ गुरु महाराज के उपाश्रय व्याख्यान सुनने को भी जाया करता था। जैसे मुनिजन पाट पर बैठकर श्रोताओं को व्याख्यान सुनाते थे राजशी भी लड़कों को एकत्र कर उनको व्याख्यान सुनाने की चेष्टा किया करता था और जैसे मुनिराज अपने व्याख्यान में संसार की असारता बतलाते थे जिसको राजशी सुनता था उसी प्रकार अपने सहचरों के बीच बैठकर उन बालकों को संसार की असारता बतलाया करता था इत्यादि ।
____ हा हा ! पूर्व जन्म के यह कैसे सुन्दर संस्कार होंगे। राजशी को इन बातों में बहुत आनन्द श्राता था । एक दिन राजशी गुरु महाराज के उपाश्रय गया था उस समय साधु भिक्षार्थ नगर में गये थे । राजशी व्याख्यान के पाटा पर बैठकर व्याख्यान देने लग गया । जब साधुओं ने श्राकर देखा और राजशी को पूछा कि तू क्या कर रहा है ? राजशी ने उत्तर दिया कि मैं व्याख्यान दे रहा हूँ इत्यादि उस बच्चे की चेष्टा देख कर मुनियों ने सोचा कि यदि यह बालक दीक्षा लेगा तो जिनशासन की बड़ी भारी प्रभावना करेगा ।
एक समय भुनियों ने गोचरी जाने के लिये पात्रों का प्रतिलेखन कर रखा था। इतने में बालक राजशी पाया और भोली सहित पात्र लेकर सीधा ही अपने घर पर आ गया एवं माता के पास जाकर धर्म लाभ दिया । माता ने इस प्रकार राजशी को देख कर उसे आलम्भ दिया कि बेटा ! साधुओं के पात्रं कभी नहीं लेना । बेटा ने कहा, माता पाने मुझे अच्छे लगते हैं इत्यादि । इतने में पीछे मुनि आये और उसके हाथों से पात्र ले लिया इत्यादि धर्म चेष्टा के कई उदाहरण राजशी की बालावस्था के बन चुके थे ।
बालकुँवर राजसी की बाल क्रीड़ा ]
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