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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७४-५७७ हैं पर केवल देश के साथ ही सम्बन्ध रखते हैं । अतः हिन्दुस्थान में रहने वाले लोग हिन्दूजाति के नाम से ही लिखे गये हैं । इतिहासकारों ने जिस हिन्दूजाति का उल्लेख किया है उसमें जैन बौद्ध वेदान्ति वगैरह सब शामिल हैं परन्तु व्यापार करने में अधिक संख्या जैन जातियों की ही थी। कारण,भगवान महावीर के उपासकों में वैश्यवर्ण वाले अधिक थे बाद में आचार्य श्री रत्नाभसूरि ने महाजन संघ की स्थापना की उसमें अधिक क्षत्री वर्ण के लोग थे। वैश्य एवं व्यापारी लोग भी कम नहीं थे और जो क्षत्री लोग थे उनसे भी कई लोग अपनी सुविधा के लिये धीरे-धीरे व्यापार करने लग गये । इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं हो सकता है कि जैनधर्म पालने वाले सब वैश्य ही थे; पर बहुत से राजा एवं राजपूत भी थे। किन्तु जहाँ करोड़ों की संख्या हो वहाँ सब तरह के लोग हुआ करते हैं । हाँ, जैनधर्म पालन करने वालों में अधिक लोग क्षत्रिय और वैश्य ही थे अतः व्यापार में अधिक हिस्सा जैन व्यापारियों का ही था उसमें भी अधिक भाग उपकेशवंशियों का था 'उपकेशे बहुलं द्रव्यं' यह वरदान भी व्यापार का लक्ष्य में रख कर ही दिया गया था। तदनुसार उपकेशवंशीय व्यापारियों ने व्यापार में पुष्कलद्रव्य उपार्जन किया । यही कारण है कि उपकेशवंशीय ने एक एक धर्म कार्य में करोड़ों द्रव्य व्यय कर दिया । एक एक दुकाल में देशवासी भाइयों के प्राणबचाने को करोड़ों द्रव्य खर्च कर दिया यह सब व्यापार का ही सुन्दर फल था । __ जैन व्यापारियों में कई एक वीर क्षत्रीय थे उन्होंने विदेशों में जाकर उपनिवेश स्थापना किये हों और वहाँ के राजाओं को कर नहीं दिया हो तो यह बात संभव हो सकती है और यह कार्य वीरोचित भी है। अब थोड़ा सा खुल्लासा धर्म के विषय में भी कर दिया जाता है । जैन धर्म और बौद्धधर्म ये दोनों पृथक् २ धर्म हैं परन्तु वेदान्तियों की हिंसा के लिये दोनों धर्मों का उपदेश मिलता जुलता ही था । वेदान्ति लोग दोनों धर्मवालों को नास्तिक कहते एवं लिखते थे। बोद्धधर्म का पाश्चात्य प्रदेशों में अधिक प्रचार होगया था अतः पाश्चात्य लोगों ने जैनों को भी बौद्ध ही लिख दिया है। यही कारण है कि थोड़ा अर्सा पूर्व लोगों की धारणा थी कि जैन और बौद्ध एक ही धर्म है तथा जैन एक बौद्धों की शाखा है अत: इस भ्रान्ति के कारण जैनधर्मोपासकों के किये हुये कार्यों को बौद्धों के नामपर चढ़ा दिये हों तो आश्चर्य की बात नहीं है । वास्तव में जैनों ने पाश्चात्य प्रदेशों में जैनधर्म का काफी प्रचार किया था फिर भी आज वहाँ जैनधर्म के स्मारक चिन्हों के अलावा जैनधर्मोपासक नहीं मिलते हैं इसका क्या कारण होगा ? इसके उत्तर में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जैनधर्म में साधुओं के आचार विचार के नियम इतने सख्त होते हैं । कि देशान्तर में जाने में उनको बहत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जब भारत में लगातार कई वर्षों तक जनसंहारक भयंकर दुष्काल पड़ा उस विकट परिस्थिति में जैनश्रमणों का पाश्चात्य प्रदेशों में विहार बन्द होगया फिर पीछे कोई साधु वहाँ पहुँच नहीं सका । तत्र बौद्ध भिक्षुओं के लिये सब प्रकार की सुविधा होने से उनका वहाँ भ्रमण रहा अतः बौद्धों का प्रचार बढ़ गया । यही कारण है कि पिछले लेखकों ने जैनों के किये हुये कार्य को बौद्धों के नाम से लिख दिये । जब जैनप्रन्यों को सूक्ष्मदृष्टि से अवलोकन करने से पता लगता है कि एक समय पाश्चात्य प्रदेशों में जैनधर्म का काफी प्रचार था और उन्होंने जन कल्याण कारी कार्य किया है। प्रसंगोपात् इतना लिखने के पश्चात् अब हम वर्तमान इतिहास संशोधकों की ओर पाठकों का लक्ष दोगते हुए उनके लेखों सेकतिपय प्रमाण यहाँ उद्धृत कर देते हैं: १-चीन की मुद्राओं का इतिहास देखा जाय तो सब से पहिले भारतीय शक्तिशाली व्यापारियों ने जैन व्यापारियों का व्यापार ] ...........morruaryanvrmirmananewwwwwwwwwwwm ५८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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