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वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अपने व्यापार की सुविधा के लिए धातु मुद्राओं का आविष्कार किया था उनके अनुकरण में फिर वहाँ कई एकों ने अपने राज में मुद्रायें चलाई।
२-मृच्छकटिक नाटक में राजधानी के बीच "श्रेष्टिचत्वर" का उल्लेख है। श्रेष्टि वत्वर को लोग धनकुवेर कहा करते थे। भारत के सभी प्रधान २ व्यापारिक केन्द्रों में उनकी कोठियां थी। भिन्न भिन्न प्रकार के जवाहिरात, और रेशमी मुल्यवान वस्त्र का व्यापार बहुत होता था । तथा अटूट धनराशि नगर की एकान्त गली में, अन्धकारपूर्ण कोठरी में रक्षित रखी जाती थी । आवश्यकता होने पर राजामहाराजों को भी उनसे कर्ज लेना पड़ता था। उन लोगों में अहंकार या गौरव की भावनाऐं नहीं थीं वे अपनी जाती का पालन करते थे । विशाल देवालय स्थापित करके देवता और गुरु के प्रति भक्त दिखा कर उन्होंने यश प्राप्त किया था इत्यादि उल्लेख मिलता है।
३-एक फ्रान्सीसी लाकूपेरी पुरातत्ववेत्ता ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ई० स० पूर्व सातसौ वर्ष में भारतीय व्यापारी गण चीन में व्यापारार्थ आये थे और उन्होंने वहाँ धातु की मुद्रा प्रचलित की थी इतना ही क्यों पर ई० स० पूर्व ६०० वर्ष उपसागर के चारों और भारतीय व्यापरी फैल गये थे और वर्तमान में जैसे यूरोपियन शक्तिशाली हैं वैसे ही प्राचीन समय में भारतीय व्यापारी भी ऐसे ही शक्तिशाली थे कि अपनी शक्ति से वे लोग वहाँ उपनिवेश स्थापित करते थे।
४-ई. स. पूर्व छठ्ठी शताब्दी में चीन में एक मुद्रासंघ स्थापित किया था जिसमें चीन के व्यापारियों ने सहयोग दिया था व मुद्रायें वर्तमान में भी उपलब्ध होती हैं अर्थात् भारतीय वस्तुओं की चीन वाले बड़ी कदर करते थे और बड़ी रुचि से खरीद भी करते थे।
५- केवल चीन देश में अपना वाणीज्य प्रसार करके भारतीय व्यापारियों ने अपने साहस का अन्त नहीं किया। प्रत्युत पाश्चात्य प्रदेश में और भी कई देशों में उन्होंने अपने व्यापारिक अस्तित्व को कायम किया, जिसका उल्लेख उन देशों के इतिहास में मिलता है।
६-प्रीस देश के वणिक एरियन ने अपने 'पेरिप्लस' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि भारतीय व्यापारी अरब देश के पूड़ेमन नगर मे उतरा करते थे और मिश्र के व्यापारी वही से उनके पास से भारतीय वस्तुये खरीद लिया करते थे। मिश्रदेश के वासी भारतीय वाणिकों के संसर्ग में आने के पूर्व कपास का व्यवहार करना नहीं जानते थे । स्ट्रेबोने लिखा है कि भारत ही कपास की जन्मभूमि है । वाणिज्य के द्वारा वह क्रमशः मिश्र और दूसरे देशों में पहुँचा !
७-एरियन-ईसा की पहिली शताब्दी में मिश्र से भारत में व्यापार करने के लिये आया था। उसने अपने मन्थ में दक्षिण भारत के निवासियों के लिये वाणिज्य सम्बन्धी प्रभाव का वर्णन विस्तार से किया है।
८-जावा द्वीप के इतिहास में लिखा है कि ईसवी सन् से ७५ वर्ष पूर्व हिन्दू वाणिक कलङ्ग देश से इस द्वीप में गये थे और उन्होंने वहाँ अपना एक संवत् भी प्रचलित किया था।
९-इसवी सन पहली शताब्दी में युनानी डिसमाइस मिश्र से भारत में आया था उसने भारत में घूमघूम कर व्यापार के केन्द्र स्थानों का निरीक्षण किया था।
१०-अलेक जैडियस पन्टेनस ईसाई पादरी बनकर ई० स० १३८ में भारत में आया था यहाँ का व्यापार देखकर पुनः अपने देश में जाकर वहाँ के लोगों को व्यापारिक शिक्षा दे कर प्रचार किया था। Jain Ed k ternational
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