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वि० सं० १७४–१७७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
सम्राट चन्द्रगुप्त के इतिहास पढ़ने से यह भी पता लगजाता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त ने कितने ही पाश्चात्य प्रदेश पर अपना राज स्थापित कर दिया था। इससे भारतीय व्यापारियों को और भी सुविधा होगई थी कि वे पुष्कल प्रमाण में व्यापारार्थ जाया श्रआया करते थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के समय एक देश के राजदूत दूसरे देशों में आया जाया करते थे और राजाओं की सभा में रहते भी थे। जैसे यूनानी राजदूत मेगस्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त की सभा में रहता था। कई लोग यात्रार्थ भी एक दूसरे देशों में आया जाया करते थे जिससे मालूम होजाता था कि कौन से देश में क्या रीतरिवाज हैं, कौन से पदार्थ पैदा होते हैं क्या क्या कला कोशल व्यापार वगैइ वगैरह हैं इत्यादि । सम्राट चन्द्रगुप्त ने पाश्चात्य राजाओं की कन्याओं के साथ विवाह भी किया था।
सम्राट सम्प्रति के समय तो पाश्चात्य देश भारत का एक प्रान्त हो वैसा बनगया था। सम्राट राजा सम्प्रति कट्टरजैन था और उसने जैन धर्म के प्रचारार्थ अपने सुभटों को जैन मुनियों का वेष पहिना कर अनार्य देशों में भेजे थे और उन नकली साधुओं ने पाश्चात्य प्रदेशों में जाकर वहाँ के लोगों को जैन धर्म की शिक्षा दी तथा जैन मुनियों का श्राचार विचार समझाया जिससे बाद में जैनसाधुओं ने भी पाश्चात्य प्रदेशों में भ्रमण कर जैन धर्म का प्रचार बढाया तथा सम्राट सम्पति ने उन पाश्चात्य लोगों के कल्याणार्थ अनेक मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई जिसके खण्डहर भूगर्भ से आज भी निकल रहे हैं जैसे आस्ट्रीया में भगवान महावीर की मूर्ति तथा अमरीका में सिद्धचक्र जी का गटा आदि । इतना ही क्यों पर मक्का में जैन मंदिर तो चौदहवीं शताब्दी तक विद्यमान थे बाद जब वहाँ जैनों की बस्ती नहीं रही तब वहाँ की मूर्तियां मधुमति ( महुआ) के व्यापारियों ने वहाँ से उठाकर अपने नगर में ले आये । सारांश यह है कि जब पाश्चात्य प्रदेशों में जैन धर्मका इतना प्रचार बढ गया था और जैन साधु वहां जाने आने लगगये थे तो जैन व्यापारी वहाँ ब्यापारार्थ बहुत गहरी तादाद में जांय इसमें असंभव जैसी कोई बात भी नहीं है। इतनाही क्यों पर बहुत जैन ब्यापारि ने तो व्यापार के लिये बहाँ अपनी दुकाने भी खोल दी थीं और वे खुद तथा उनके वेतनदार मुनीम गुमास्ता एवं नौकर हमेशा के लिये वहाँ रहते थे।
सम्राट सम्प्रति के बाद के समय के तो पुष्कल प्रमाण मिलते हैं कि जैन व्यापारी व्यापारार्थ पाश्चात्य देशों में जल एवं थल के रास्ते व्यापारार्थ जाते आते थे उसका उल्लेख पट्टावलियों में मिलता है परन्तु पट्टा. वल्यदि में विशेष वर्णन धार्मिक कार्यों का ही है अतः कहीं प्रसंगोपात् ही व्यापार का उल्लेख किया है जो कुछ मिला है वह मैंने इस प्रन्थ में प्रन्थित कर दिया है।
अब कुछ अाजकल के इतिहास संशोधकों के प्रमाण भी यहाँ उद्धृत कर दिये जाते हैं । कि वे लोग क्या कहते हैं उनका उल्लेख करने के पूर्व एक बात का खास तौर पर खुलासा कर देना जरूरी है जैसे कि
"भारत में किसी भी धर्म को पालन करने वाले लोग क्यों न हों परन्तु पाश्चात्य लोग उनको भार. तीय लोग एवं बाद में हिन्दू जाति के नाम से पुकारते थे एवं लिखतेथे क्योंकि वे भारत एवं हिन्दुस्तान में रहने वाले थे जैसे पाश्चात्य देशों के लोग किसी धर्म के पालने वाले क्यों न हों पर हम उनकों यूरोपियन जाति के ही कहेंगे । यह नाम उनके देश को लक्ष्य में रख कर ही कहे जाते हैं । इतनी दूर क्यों जाते हो पर केवल एक भारत को ही देखिये बंगाल में रहने वाले बंगाली,मारवाड़ में रहने वाले मारवाड़ी,गुजरात में रहने वाले गुजराती के नाम से पुकारे जाते हैं । सारांश यह है कि यह नाम धर्म या वर्ण के साथ सम्बन्ध नहीं रखते
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