________________
भावार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
नहीं बढ़ सके । शायद उन्होंने वह प्रदेश आपके लिये ही छोड़ दिया हो, अतः मेरी प्रार्थना है कि आप मरु भूमि की ओर विहार करावें । कारण, आप इस प्रकार कार्य के लिये सर्व प्रकार से समर्थ हैं इत्यादि । देवी के वचन सुन कर सूरिजी ने अपने श्रुतज्ञान से उपयोग लगा कर देखा तो देवी का कथन सत्य जान पड़ा । बस फिर तो देर ही क्या थी ? सुबह होते ही विहार कर दिया और क्रमशः मरुधर भूमि की ओर चल दिये।
जिस समय प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने मरुभूमि की ओर विहार किया था उस समय मरुधर अज्ञान से छाया हुआ था । नास्तिकों का साम्राज्य बरत रहा था । मांस मदिरा एवं व्यभिचार को धर्म का स्थान देकर इन बातों का जोरों से प्रचार हो रहा था । इतना ही क्यों पर इस विषय के कई प्रन्था भी निर्माण कर उनको ईश्वरीय वाक्य कह कर जनता को विश्वास दिलाया जाता था। फिर तो जनता के लिये ऐसी कौनसी कामना शेष रह जाती थी कि वे धर्म के नाम पर अपनी इन्द्रियों एवं विषय कषाय का पोषण करने में थोड़ी सी भी कमी रक्खें ?
उन नास्तिक पाखण्डियों ने जनता को इस कदर वश में कर ली थी कि जैसे मंत्रवादी भूत पिशाच को वश में कर लेते हैं । इतना ही क्यों पर उन पाखंडियों के साम्राज्य में किसी सत्यवक्ता का प्रवेश करना तो मानों एक चौरपल्ली के समान ही था। फिर भी आचार्य श्री किसी बात की परवाह नहीं करते हुये यूथपति की भांति अपने शिष्यों के साथ आगे बढ़ते ही गये । हाँ, उन पाखंडियों की ओर से सूरिजी का का स्वागत (?) होने में भी किसी प्रकार की कमी नहीं थी। न मिलता था अहार पानी न मिलता था ठहरने को मकान । इतना ही क्यों पर स्थान स्थान पर जैन साधुओं की ताड़ना, व तर्जन और असभ्य शब्दों से अपमान होता था । पर जिन महात्माओं ने जन कल्याणार्थ अपना जीवन अर्पण करने का निश्चय कर लिया हो उनको मान अपमान एवं जीवन मरण की परवाह ही क्या थी ? वे अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करते हुये एवं भूखे प्यासे क्रमशः उपकेशपुर नगर तक पहुँच गये जो नास्तिकों का एक केन्द्र नगर
कहलाता था
प्रसंगोपात उपकेशपुर ( वर्तमान जिसे ओसियाँ कहते हैं ) नगर का थोड़ा सा हाल लिख दिया जाता है कि इस नगर को कब और किसने आबाद* किया था ? 8 श्री महावीर निर्वाणात् द्विपंचाशत वत्सरे गुरोः सूरिपद प्राप्य ततो अष्ठादश हायनैः॥२१७॥
नाभिनन्दन जिनोद्धार पृष्ट +मय मांसं च मीनं च, मुद्रा मैथुन मेव च । एते पंचमकारश्व, मोक्षदा हि युगे युगे । पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले। उत्थितः सन् पुनः पीत्वा, पुनर्जन्मो न विद्यते । रजस्वला पुष्करं तीर्थ, चाण्डाली तु स्वयं काशी । चर्मकारी प्रयाग स्याद्रजकी मथुरा मताx मातृयोनि परित्यज्य विहरेत् सर्व योनिषु x x सहस्र भग दर्शनात् मुक्तिः x x x ॐ कदाचिदुपकेशपुरे, सूरयः समवासरन् । यादृक् तमगरं येन, स्थापितं श्रूयतां तथा ।
'उपकेश गच्छ चरित्र
Jain Education Interfonal
For Private & Personal Use Only
www.library.org