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________________ वि० पू० ४१८ वर्ष ] आचार्य रत्नप्रभसूरिका जीवन ] श्राचार्य श्री ने उन मुमुक्षुत्रों को क्षमा प्रदान से संतुष्ट कर योग्य समझ कर ऐसी देशना दी कि जिससे वे संसार को आसार जानकर सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेने को उपस्थिति हो गये । पर राजा रत्नचूड़ ने जरूरी जान कर सूरिजी से निवेदन किया कि हे पूज्य वर ! आपके कहने से इतना तो अवश्य जान गये कि बिना दीक्षा के आत्म कल्याण हो नहीं सकता । इतना ही क्यों; पर हम दीक्षा लेने को भी तैयार हैं पर मेरे एक ऐसा अटल नियम है कि मैं चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति, जो मेरे पूर्वजों द्वारा लंका से लाई गई थी, की पूजा किये बिना मुंह में अन्न जल नहीं लेता हूँ। अतः मूर्ति साथ में रख कर दीक्षा ग्रहण करू जिससे कि मेरा नियम भी भंग न हो और दीक्षा पाल कर कल्याण भी कर सकू। सूरिजी ने लाभालाभ को जान कर आज्ञा फरमादी। बस फिर तो देरी ही क्या थी राजा रत्नचूड़ ने अपने पुत्र को राजगद्दी सौंप कर ५०० विद्याधरों के साथ प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि के चरण कमलों में दीक्षा धारण कर ली। आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने उन मोक्षार्थियों को दीक्षा देकर राजा रत्नचूड़ का नाम रत्नप्रभ रख शेष पांच सौ मुनियों को रत्नप्रभ का शिष्य बना दिया । तदन्तर मुनि रत्नप्रभ गुरु चरणों की सेवा उपासना करते हुये क्रमशः बारह वर्ष निरन्तर ज्ञानाभ्यास कर द्वादशांग, अर्थात् सकलागमों के पूर्णतया ज्ञाता बन गये । इतना ही क्यों; पर आपने तो आचार्य पद योग्य सर्वगुण भी प्राप्त कर लिये, अतः आपका भाग्य रवि मध्यान्ह के सदृश चमकने लग गया। श्राचार्य स्वयंप्रभसूरि ने अपनी अन्तिमावस्था और मुनिरत्नप्रभ की सुयोग्यता देख कर वीरात् ५२ वें वर्ष मुनिरत्नप्रभ को आचार्यपद से विभूषित * कर चतुर्विध संघ का नायक पना कर अपना सर्वाधिकार उनको सौंप दिया । तदनन्तर प्राचार्य रत्नप्रभसूरि शासन तंत्र सुचारु रूप से चलाते हुये पाँच सौ मुनियों को साथ लेकर भूतल पर धर्म प्रचार करते हुये विहार करने लगे। __ आचार्य रत्नप्रभसूरीश्वर बड़े ही प्रतिभाशाली थे। आपका उपदेश मधुर, रोचक एवं प्रभावोत्पादक होता था । श्राप अनेक विद्याओं से विभूषित एवं अहिंसा परमोधर्म के कट्टर प्रचारक थे। आपके तप संयम का तप तेज सूर्य की भांति सर्वत्र फैला हुआ था। तांत्रिक, नास्तिक एवं वाममागियों पर आपकी जबरदस्त धाक जमी हुई थी। अतः आप अपने कार्य में सदैवस फलता पाया करते थे। __एक समय सूरिजी अपने शिष्य मंडल के साथ तीर्थाधिराज श्रीश@जय की यात्रा कर अर्बुदाचल पधारे और वहाँ की यात्रा कर रात्रि में विहार का विचार कर रहे थे । उस समय वहाँ की अधिष्ठात्री चक्रश्वरीदेवी ने प्रार्थना की कि हे पूज्यवर ! आपका शुभ बिहार यदि मरुधर की ओर हो तो बहुत ही लाभ होगा । कारण आपके गुरुवर्य ने श्रीमाल नगर तक विहार कर लाखों मूक प्राणियों को जीवन प्रदान कर यज्ञ जैसी निष्ठुर प्रवृति का उन्मूलन कर लाखों भक्त बनाये थे, पर वे भवितव्यता के कारण वहाँ से आगे * १ सगीतार्थ क्रमेणऽथ, सूरिभिः स्वपद कृतः मुनि पंचशती युक्तो, विजाहार धरातले । __'नाभिनन्दन जि. पृ० ४०' २ "क्रमेण द्वादशांगी चतुर्दशपूर्वी बभूव गुरुणास्वपदे स्थापितः श्रीमद्वीरजिनेश्वरात् द्विपंचाशत वर्षे आचार्य पदे स्थापितः पंचाशत साधुभि सहधरां विचरति" 'उपकेशगच्छ पट्ठावली'पृष्ट १०४ Jain Educa.९४ termational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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