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[१२ ] थे। एक दिन मुनिश्री ने प्रतिमा छतीसी और योगीराजजी ने विनती शतक बनाकर वीर प्रभु का स्तवन दर्शन किया उस प्रतिमा छतीसी को एक सादड़ी के श्रावक ने २००० नकल बंबई में छपवाकर वितीणे करवादी । जिससे समाज में चर्चा छिड़ गई अर्थात् खूब जोरों से खण्डन मण्डन शुरु होगया । उधरतो स्थानक वासी अखिल समाज था इधर मुनि महाराज अकेले उस समय में आपके पक्ष में कोई नहीं था फिर भी आपका पक्ष सत्य का था इस लिये विजय प्राप्त आपको ही हुई। चातुर्मास के बाद पुनः श्रोसिया आये तब बहुत से लोग आपके उपदेश से डोरा तोड़ मूर्तिपूजक बन गये। वहां पर बोडिङ्ग स्कूल की भी स्थापना होगई बाद ओसिया में ही मार्गशीर्ष शुद्ध ११ के दिन आपको छोटी दीक्षा और पौषवद ३ के दिन बड़ी दीक्षा देकर आपका नाम ज्ञानसुन्दरजी रखा तथा आपको उपकेशगच्छ का पुनः उद्धार करने का गुरुवर्य ने आदेश दे दिया और योगीराजश्री भण्डारी चन्दनचंदजी के साथ उसी दिन कौसाना की यात्रा के लिये विहार कर दिया तथा मुनीश्वर को बोर्डिङ्ग के बृद्धि के लिये श्रोसियों में ही छोड़ दिये । तथा मुनिश्री ने फाल्गुन शुद्ध ३ तक वहां ही ठहर कर बोर्डिंग को अच्छा जमा दिया। यद्यपि इसमें बहुतसा कष्ट उठाना पड़ा कारण एक तो पोसवालवर्ग अपने लड़कों को ओसिया में रात्रि में रखना नही चाहते थे दूसरा द्रव्य की भी छुट नहीं थी तथापि आपश्री ने अथाह परिश्रम कर बीडिंग की नीव मजबूत बनवादी। बाद लोहावट फलोदी वाले संघ के अत्याग्रह से विहार कर रास्ता में लोहावट ठहरकर फलौदी पधारे वहां के श्रीसंघने श्रापका बड़ा भारी समारोह के साथ सत्कार किया।
10-सं० १९७३ का चातुर्मास फलोदी में ही हुआ आपके चातुर्मास से वहाँ की जनता पर बड़ा भारी उपकार हुआ । व्याख्यान में हजारों आदमी लाभ लेते थे । आपका व्याख्यान मधुर रोचक पाचक और प्रभावोत्पादक था अतः श्राप के उपदेश से १ श्रीरत्नप्रभा कर ज्ञान पुष्पमाला नामक संस्थाके लिये १५०१) का चन्दा होकर संस्था स्थापन की २ जैन पाठशाला जो कि-श्रीमाणकलालजी कोचर की तरफ से स्थापित हुई । ३ जैनलायत्रैरी-नवयुवकों की ओर से स्थापित की गई। ४ जैन मित्र मण्डल यह भी नवयुधकों की ओर से । ५ श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान भण्डार । इस प्रकार पांच संस्थाओं की स्थापना तथा स्थानकवासी साधूरूपचंदजी को दीक्षा दी तथा एक स्थानकवासी साधु धूलचन्दजी को दीक्षा देकर रूपसुन्दरजी के शिष्य बनाया । इत्यादि बहुत उपकार हुआ बाद वहाँ से जैसलमेर की यात्रा की तत्पश्चात् विहार कर लोहावट फिर श्रोसियाँ आये । वहाँ पर श्री विजयनेमि सूरीजी पादड़ी से संघलेकर पधारे आपका बहुत ही अच्छा स्वागत किया गया था पर वे जाते समय रूपसुन्दरजी को संघ के साथ लेते गये। अतः आपश्री अकेले ही रह गये खैर श्रोसियों में भी श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला की ब्रांचशाखा खोली गई।
11-सं० १९७४ का चातुर्मास जोधपुर में किया वहाँ भी व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र वाँचा । स्वामी फूलचन्दजीसे शास्त्रार्थ होने का निश्चय हुआ पर समय पर स्वामीजी सभा में नहीं पधारे अतः जनता में स्वामीजी की कमजोरी पाइ गई विजय मुनि श्री की ही हुई। तथा गुरां के तालाब के ! स्वामी वात्सल्य के लिये भी कुछ बँचातानी हो गई थी जिसका समाधान भी आप ही ने करवाया बाद में विहार कर पाली पधारे । वहाँ प्लेग की बीमारी चली थी सब नगर वालों के अत्याग्रह होने से यति माणिक सुन्दर जी प्रेमसुन्दरजी को बुलवाकर शान्ति स्नात्र पढ़ाई जिसका जबर प्रभाव पड़ा की सर्वत्र उपद्रव शान्ति हो गई। वहाँ से गौड़वाड़ की पश्चतीर्थी कर सादड़ी गये वहाँ पग्लिक व्याख्यान हुए जिसका प्रभाव जनता पर अच्छा पड़ा । गोडवाड़ के मूर्ति पूजक और लौंकों में प्रतिमा नकल निरूपण के विषय में विरोधी वातावरण चल रहा था जिसके लिये भी आपने बहुत कुछ प्रयत्न किया था। वहाँ भण्डारीजी चन्दनचन्दजी जोधपुर
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