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[११] एक फूलचन्द नामका नवयुवक था उसने मर्ति के विषय ७ प्रश्न लिख कर रखलाम पूज्यजी के पास भेजे उत्तर में सेठजी अमरचन्दजी ने अपने हाथ से ऐसा उत्तर लिखा कि जिसमें मूर्तिपूजा के विषय में ठीक मध्यस्थ पना से स्वीकार किया अस्तु ।
सादड़ी में पुस्तक पढ़ने की बहुत सुविधा थी श्रीमान् चन्दनमलजी नागोरी हरएक पुस्तक पढ़ने को दे देते थे इस पर यहां के श्रावक ने विरोध किया तथा पूज्यजी के पास जाकर मनाई का हुकुम लिखवाय लाये जिसको मुनिजी ने शिर पर चढ़ा लिया फिर भी आप पुस्तकें तो पढ़ते ही रहे। बादमें आपके शरीर में बादी की तकलीफ होने से ३॥ मास पथारी से उठा तक भी नहीं यद्यपि अशुभ कर्म के उदय होने से ही ऐसा हुआ था पर आपने तो उसको भी पुण्योदय ही समझा कारण इस बिमारी के समय में आपने एक लक्ष श्लोक पढ़लिया आपकी बीमारी के कारण गुरुवर्य श्री मोड़ीरामजी महाराज जावद से चातुर्मास में भी पधारे कुछ दिन ठहर कर वापिस पधार गये खैर इस चातुर्मास के समय बहुत वाद विवाद छिड़ गया था और आपकी इच्छा थी कि अब बेधड़क हो सत्योपदेश करें अत: चतुरमास के बाद आप चलकर स्वामि कमचंदजी के पास गंगापुर आये जब पूज्यजी को मालुम हुआ तो मोड़ीरामजी तथा शोभालालजी को जल्दी से गंगापुर भेजे कि-गयवरचंद को समझाकर मेरे पास ले आओ । गंगापुर में मिले हुए सव साधुओं की श्रद्धामूर्ति पूजा की थी परलोकापवाद के कारणवेष छोड़ने की हिम्मत नही हुई सबका यह निश्चय हुआ कि साधुओं को अपने पक्ष में करो फिर साथ ही निकलेंगे। खैर मोड़ीरामजी महाराज के साथ गयवरचंद ब्यावर होते हुए जोधपुर पहुँचे । श्राप व्याख्यान बांच रहे थे एक श्रावक ने प्रश्न किया कि श्रावक मूर्ति को नमस्कार करे जिससे क्या फल मिलता है उत्तर में मुनिश्री ने कहा कि मूर्ति को ईश्वर का स्थापना निक्षेप समझ कर नमस्कार करने से दर्शन शुद्धि होती हैं और पत्थर समझ कर नमस्कार करने से मिथ्यात्व लगता है बस वहाँ भी हा हो मच गया। पूज्यजी को तार देकर समाचार मंगवाया तो उत्तर मिला कि मैं साधुनों को भेज रहा हूँ गयवरचंद को वहीं ठहरायो । बस वहां ठहरने पर चार साधु पूज्यजी के भेजे हुए वहां आये । वे एक लिखित लिखाकर भी लाये जिसमें लिखा हुआ था कि १ मूर्ति की.प्ररूपना नहीं करनी। २ टीका के शास्त्र नहीं पढ़ाना । ३ मूर्तिपूजक श्रावक से वार्तालाप नहीं करना । ४ धोवण पीना पर जीवोत्पन्न की शंका नहीं रखना । ५ बासी रोटी खाने में इन्कार नहीं करना । ६ विद्वल नहीं टालना । ७ पेशाब परठ कर हाथ नहीं धोना । इत्यादि १२ कलमें लिखित में थी कि गयवरचंदजी सिद्धों की साक्षी से हस्ताक्षर करके पालन करे तो शामिल रखना वरना अलग कर देना। मुनिश्री ने कहा कि दीक्षा आत्मकल्याणार्थ ली है और आत्मा परमात्मा की साक्षी से पाली जाती है हस्ताक्षर करना कराना चोरो का काम है इत्यादि सं १९७२ चैत्र शुक्ल १३ जोधपुर से आप अलग होगये । और वहां से चलकर महामन्दिर आये-वहां जोधपुर के दो मूर्तिपूजक श्रावक आकर आपको अपना लिये । तत्पश्चात् आपने सुना कि एक संवेगी साधु पोसियों में है अतः आपश्री श्रोसिया पधारे और श्री महावीर की यात्रा कर परमयोगिराज श्रीरत्नविजयजी महाराज से मिले दो मास वहीं पर ठहरकर प्रत्येक गच्छों की समाचारियों वगैरह देखी तथा श्रोसिया में पाय, व्यय, का कोई हिसाब नहीं था अतः एक शान्ति स्नात्र भणाकर मंगलशी रत्नशी नाम की पेढ़ी की स्थापना करवाई । वहां पर एक वोर्डिङ्ग स्थापना करने की योजना भी तैयार की।
9-सं० १९७२ का चातुर्मास तिवरी प्राम में किया यहां तक आपके मुख पर मुहपती डोरा सहित बन्धी हुई थी आपका विचार दीर्घकाल मुहपर मुहपती बन्धी रख कुछ ठोस कार्य करने का था परन्तु
मा श्राप भोसिया पधारे थे तब प्रत्येक दिन एक एक नया स्तवन बनाकर वीर प्रभु के दर्शन स्तुति करते Jain Education International
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