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[१०] इसके अन्दर कई प्राचीन शास्त्र थे, उनको देखा तो प्राचाराङ्ग सूत्र की नियुक्ति में तीर्थ यात्रा करने से दर्शन शुद्धि तथा और भी उपासकदशाङ्ग व उवाइजी में आनन्दअम्बड़ के अधिकार में मूर्तिपूजा के पाठ मिल गये । वहां पर तेरहपन्थियों से चर्चा हुई जिसमें आपको विजय प्राप्त हुई । वाद चातुर्मास के उदयपुर पधारे । रास्ता में बहुत से मांसाहारियों को उपदेश देकर मांस को छुड़वाया जब उदयपुर गये वो वहाँ के श्रीसंघ के आग्रह से व्याख्यान में श्री जीवाभिगमसूत्र बांचना प्रारम्भ किया । आपश्री आँखों का इलाज के कारण करीब २॥ महिना तक उदयपुर में रहे वहाँ गुरुवर्य मोड़ीरामजी महाराज भी पधारे थे। पर थोड़े दिन रहकर विहार कर दिया । उदयपुर में आपके व्याख्यान कि इतनी ख्याति हुई कि वहां के संघ की इच्छा हुई कि आपको युगराजपद दिलाया जाय इत्यादि आपके व्याख्यान में बड़े २ राजकर्मचारी
आया करते थे । जब विजयदेव के उत्पन्न होने के अधिकार में मूर्तिपूजा का फल के विषय में हित सुख कल्याण मोक्ष और अनुगमी पाठ आये तो जैसे सूत्र में लिखा था अापने वैसे ही परिषद् में सुनादिया बस फिरतो था ही क्या एकदम हा हो हुआ और कहने लगे कि महाराजकी श्रद्धाभ्रष्ट होगइ है पर जब सूत्र के पन्ने नगरसेठ नन्दलालजी व दीवान कोठारीजी साहब के हाथ में दिये तथा आपने एक लिखा पढ़ा विद्वान को खड़ाकर व्याख्यान में उस सूत्र के पन्ने को दुबारा बचवाया तो वही शब्द जो आपश्री ने फरमाये थे निकले इस से लोगों को शंका होने लगी। अतः ६० प्रादमी मुनिश्री से खिलाफ हो भीलाड़े पूज्यश्री के पास गये और णादि से अन्त तक सब हाल कह सुनाया पूज्यजी सब जानते थे इतना ही क्यों पर वह सूत्र ही मुनिजी को पूज्यजी ने दिया था तथापि चतुर बुद्धि वाले पूज्यजी ने कहा जब तक मैं गयवरचंद से न मिलूं वहां तक इस विषय में कुछ नहीं कह सकता हूँ इत्यादि । पूज्यजी ने खानगी कहला दिया कि गयवरचंदजी रतलाम चले जाय । बस गयवरचंदजी विहार कर गये रास्ता में छोटी सादड़ी आई वहां के श्रावकों ने चतुर्मास की आग्रह प्रार्थना की इस पर मुनिजी वहां चन्दनमलजी नगोरी से मिले और पूछा कि यदि मेरा यहाँ ठहरना होजाय तो आप मुझे शास्त्र पढ़ने के लिये देंगे कारण मुझे शाखों द्वारा मूर्ति पूजा का निर्णय करना है। नागौरीजी ने विश्वास दिला दिया।
खैर चतुर्मास के लिये पूज्यजी पर छोड़ कर आप वहां से विहार कर रतलाम चले गये वहाँ पहले से शोभालालजी थे सेठजी अमरचंदनी के साथ मूर्ति के विषय में उनकी चर्चा चलती थीं । शोभालालजी वहाँ का सब हाल पापको कहकर विहार कर गये बाद में आपकी भी सेठजी से हमेशा मूर्ति के विषय में षादी प्रतिवादी के रूप में चची चलती रही एक दिन श्राप सेठजी के यहां गोचरी के लिये गये तो एक ताक में श्री केसरियावाथजी का बड़ा फोद पास में धूपदानी और फोटो के ऊपर केसर के छोटे पड़े देखे । देख. कर सेठजी को बुलाया और पूछा कि यह क्या है। तब सेठजी ने कहा कि हमतो गृहस्थ हैं मैंने तो तीनवार केसरियाजी दो बार शत्रुब्जय गिरिनार की यात्रा की है इत्यादि । मुनिश्री ने कहा सेठजी जब आपकी श्रद्धा तो तीर्थों की यात्रा या मूर्ति की पूजा करने से भी दोषित नहीं होती है तब हमको मूर्ति का नाम लेने का भी अधि. कार नहीं पर अब इस प्रकार लिख्ने पढ़े साधुओं को आप कहां तक धमका २ कर रख सकोगे इत्यादि । बाद जावरा में पूज्यमहाराज से मिलाप हुश्रा उदयपुर के विषय में पूज्यमहाराज ने उपालम्भ जरूर दिया पर आपने मतिका खण्डन या विरोध नहीं किया फेवल यही कहा कि जैसा वायु चले ऐसा नोट लेना इत्यादि । बाद नगरी जाकर श्री शोभालालजी से मिले और उनके साथ विचारकर पका निर्णय करलिया कि प्राण जाय
तो परवाह नहीं पर उत्सूत्र भाषण नहीं करेंगे। dain Education inte8-सं० १९७१ का वातीस झोटी सादडी में बहाँ पर व्याख्यान में राजप्रश्नीसत्र बांचा । -