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[ ] बटब्बा सत्य और टीका सस्य कहना तो बिलकुल ही विपरीत है। अतः इस विषय में आप श्री ने बहुत कुछ निर्णय किया तो यह पता मिना कि टीका में स्थान २ मूर्तिपूजा का विस्तृत वर्णन है और अपनी मान्यता पूजा मानने की नहीं है इसलिये टीका नहीं मानी जाती है । फिरभी पार्श्वचन्द्रसूरि ने जो टीका के आधार से टबा बनाया है उसमें तो टीका के अनुसार ही मूर्वि का उल्लेख किया है पर बाद में उस पावचन्द्रसूरि के टब्बा पर से धर्मशीजी ने टबा बनाया है उसमें मूर्तिके स्थान कहीं साधु कहीं ज्ञान कहीं छरमस्थ तीर्थक्कर अर्थ कर दिया है। अतः भद्रिकों के शुरु से ऐसे संस्कार जमा देते हैं कि टीका हम नहीं मानते हैं। जब मुनिजी ने सोचा कि एक अक्षर मात्र न्यूनाधिक करने में अनंत संसार की वृद्धि होना कहा जाता है फिर इस प्रकार उत्सूत्र प्ररूपना करनी यह तो बडा से बडा अन्याय है बस उस समय से आपके हृदय में मूर्ति पूजा ने स्थान बना लिया पर आपने सोचा कि अभी जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है पर इस विषयका अच्छी तरह से जान पना करना चाहिये कि क्या बात है कि जैन शाखों में उल्लेख होने पर भी मूर्ति नहीं मानी जाय दूसरा मन्दिर आज कल के नहीं पर बहुत प्राचीन मन्दिर विद्यमान हैं इत्यादि विचार करते ही रहे ।
6-सं० १९६९ का-चातुर्मास अजमेर में स्वामी लालचन्दजी के साथ हुआ वहीं आपने श्रीभगवती सूत्र वांचा था ब्याख्यान में सेठजी चान्दमलजी लोढ़ानी उमेदमलजी संघवीजी मोखमसिंहजी वगैरह सब आया करते थे । स्थानक में देशीसाधु लक्ष्मीचंदजी का भी चातुर्मास था धर्मवाद में पंचरंगी-नौरंगी और पन्द्रहरंगी भी करवाई जाती। जिसमें कई मजूरलोग भी आये करते थे और बिना समझ से लाभ लिया करते थे। उसमें यह नियम रखा गया था कि जो एक सामायिक करे उसको एक पैसा मिले ऐसे ही एक दया का चाराना एक पौषध का एक रुपया । कह दिगम्वर और आर्यसमाजी भी आया करते थे । कई बार आपके पास चर्चा भी होती आपनी के अपूर्व प्रज्ञा के सामने सबों को सिर मुकाना ही पड़ता था। एक समय एक मन्दिर मार्गी आये उस समय सेठ चान्दमलजी भी बैठे थे। द्रोपदी की पूजा का प्रसङ्ग पर आपने कहा कि उसने विवाह के समय मूर्ति पूजा की अतः वह मूर्ति तीर्थकरों की नहीं और पूजा भी वर एवं भोग के लिये की थी पर सेठ चान्दमलजी ने कहा महाराज क्या आपने कहा वह सूत्रों में लिखा है ? नहीं । इस विषय की चर्चा में टीकाका भी खुलाशा हो गया कि केवल मूर्तिपूजा न मानने के कारण ही टीका मानी नहीं जाती इत्यादि इस चर्चा से मर्तिपूजा की श्रद्धा और भी सुदृढ़ होती गई । वाद चतुर्मास के ध्यावर होकर पाली पधारे वहीं पूज्यजी महाराज दो वर्ष फिर कर गुजरात से आये थे अतः ३७ साधू शामिल हुए। पाली में स्वामी कर्मचन्दजी शोभालालजी कनकमलजी और गयवरचन्द जी इन चारों की श्रद्धा मूर्विं मानने की थी जो चारों ही समुदाय के स्तम्भ थे। श्रावकों के कहने से मूर्ति के विषय में पूज्यजी ने व्याख्यान में बहुत कुछ समझाया पर भवभीरूपना यह था कि पूज्यजी ने मूर्ति का थोड़ा भी खण्डन नहीं किया। बाद वहां से जोधपूर गये रास्ता में रॉयट प्राम में पूज्यजी और गयवरचंदजी के मुहपत्ती में डोरा के विषय में चर्चा हुई तो पूज्यजी ने कहाकि डोरा तो सूत्रों में नहीं लिखा पर विना उपयोग खुले मुंह बोला
माय इसलिये ही डोरा डाला है । मूर्ति के विषय में भी कहाकि मूर्ति पूजकों ने धमाधम बहुत बढ़ा दी आप अपने वालों ने विलकुल उठादी इत्यादि ।
'?-सं० १९७० का चातुर्मास गंगापुर, (मेवाड़) में स्वामी मगनमलजी के साथ हुआ वहीं पर प्रापश्री ने व्याख्यान में श्रीभगवतीजी सूत्र बांचने के साथ २ एक पण्डित रख व्याकरण पढ़ना भी शुरू बिना पर पूज्यनी को खबर होने से मनाई करदी। वहां पर एक यति के पास प्राचीन ज्ञानभण्डार था।
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