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वि० पू० ४७० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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आचार्य हरिभद्रसूरि का समय पट्टावलीकारों के मतानुसार वि० की छट्ठी शताब्दी का है परन्तु इतिहास की शोध से उनका समय ९ वीं शताब्दी के शुरूआत का स्थिर होता है तब विक्रम की दूसरी शताब्दी में प्राग्वट ( पोरवाल ) जाति के वीरों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है । देखिये पं० वीर विजयजी रचित ९९ प्रकार की पूजा में श्राप लिखते हैं:
संवत एक अठलंतरे रे जावड़ सा नो उदार, उद्धरजो मुझ साहिबा रे न आवे फिर संसार हो निजी भक्ति हृदय मां धारजो रे
पांचवी पूजा गाथा । कविवर समयसुन्दरजी शत्रुजय रास में फरमाते हैं कि:अट्ठोतरसो बरस गयो विक्रम नृपथी जी वारोजी, पोरवाड़ जावड़ करावयो ये तेरमो उद्धारोजी
ढाल चौथी गथा १६ इनके अलावा विमल मंत्री की वंशावली में ऐसा उल्लेख मिलता है कि वि० सं० ८०२ में वनराज चावड़ा ने पाटण नगर श्राबाद किया था। उस समय विमल मंत्री के पूर्वज लहरीनाम का पोरवाल उनके मंत्री पद पर नियुक्त किया गया था और उस लहरी के पिता का नाम नानग्ग बतलाया जाता है जब विक्रम की आठवीं शताब्दी में नानग्ग और लहरी पोरवाल वंश के वीर विद्यमान थे तथा उपरोक्त वि० सं० १०८ में जावड़ पोरवाल का अस्तित्व मिलता है तो फिर वि० की छट्ठी एवं नवीं शताब्दी में हरिभद्रसूरि ने पोरवाल वंश की स्थापना की कैसे मान लिया जाय ? .. जब हम वंशावलियों की ओर देखते हैं तो इनके विषय में प्रचुरता से प्रमाण मिलते हैं जो आगे चल कर इसी ग्रन्थ में बतलाये जायंगे जिससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जायगा कि प्राग्वटवंश ( पोरवाल) के आदि संस्थापक आचार्य स्वयंप्रभसूरि हो थे।
प्रश्न-कई लोग यह भी कहते हैं कि श्रीमाल जाति के स्थापक प्राचार्य उदयप्रभसूरि ही थे तो फिर आप स्वयंप्रभसूरि को कैसे बताते हो और इसके लिये आपके पास क्या प्रमाण है ?
उत्तर-जैसे हरिभद्रसूरि ने जैनेतरों को जैन बना कर पोरवालों में मिलाया और वे पोरवाल कहलाये इसी प्रकार उदयप्रभसूरि ने भी जैनेतरों को जैन बना कर श्रीमालों में मिलाया और वे श्रीमाल कहलाये परन्तु इससे उदयप्रभसूरि को श्रीमाल वंश का संस्थापक नहीं कहा जा सकता संस्थापक तो स्वयंप्रभसूरि ही हैं।
श्रीमाल नगर की प्राचीनता के लिये कुछ सन्देह है ही नहीं; क्योंकि इस विषय के पुष्कल प्रमाण मिलते हैं। अब रहा श्रीमाल जाति का विषय इसके लिये यह कहना अनुचित नहीं है कि श्रीमाल नगर के लोगों से ही श्रीमाल वंश कहलाया है। जब हम समय की ओर देखते हैं तो उदयप्रभसूरि का समय वि० की आठवीं शताब्दी का है और स्वयंप्रभसूरि का समय वि. पू. ४०० वर्ष का इन १२०० वर्ष के अन्तर में सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों श्रीमाल वंश के नररत्नों ने धर्म कार्य किये हैं जिसके उल्लेख पट्टावलियों, वंशावलियों आदि प्रन्थों में प्रचुरता से मिल ते हैं जो हम आगे चल कर इसी प्रन्थ में प्रमाण के साथ प्रकट करेंगे।
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