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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६८२ - ६९८
नहीं कर सके । इस पर राजा ने कहा कि यदि वारण में शक्ति हो तो ऐसा कोई चमत्कार कर के दीखावे । बाण ने
बाण
। कहा कि आप मेरे हाथ पग छेद के चड़ीं के मन्दिर में रख दें मयूर ने अपनी पुत्री दुखीः न हो जाय इस लिये राजा को मनाई की पर राजा ने एक की भी नहीं सुनी अतः राजा ने बारण के हाथ पग काट कर चंडी के मन्दिर के पिच्छे पहुँचा दिया बाण ने एक चंडी शतक की रचना कर चंडी की स्तुति की जिससे चंडी ने बाण के हाथ पैर दे दिये । बाण राज सभा में आगया ' जिसके नये आये हुए हाथ पैर देख राजादि सभा ने की भी प्रशंसा की । अबतो मयूर बाण ( शश्वर जमात) का बाद विवाद खुब बढ़ गया जिसका निर्णय करना राजा पर आ पड़ा । राजा ने कहा कि तुम दोनो' काश्मीर चले जाओ बहां की सरस्वती देवी तुम्हारा इन्साफ कर देगी राजा अपने योग्य पुरुषों को साथ देकर दोनों पण्डितों को कश्मीर भेज दिये । क्रमशः चल कर सरस्वती के मन्दिर में आकर कठोर तपस्या से देवी की आराधना की तब देवी प्रत्यक्ष रूप से आकर दोनों पडितों को दूर दूर बैठा कर एक समस्या पुछी कि ।
" शतचन्द्रं इस समस्या की पूर्ति लिये पण्डितों ने कहा
नभस्तलम्
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" दामोदर कराघात विली कृस चेतसा, दृष्टं चाणूर मल्लेन शतचन्द्रं नभस्तलम् ।
परन्तु बाण ने शीघ्र ' ' कहा तब मयूर ने कुछ विलम्ब से कहा अतः बाण की जय और मयूर का
काव्यानां शततः सूर्य स्तुतिं संविदधेततः । देवानूसाक्षात्करोतिस्म, येषामेकैमपि स्मृतम् ॥ ८५ ६ - प्रातः प्रकट देहोऽसावावयौ राज पर्षदि । श्रीहर्षराजः पप्रच्छासीत्तेकि रूनवा वद ॥८७
"
आसीद्द ेव परं ध्यातः सहस्र किरगो मया । तुष्टो देहं ददावद्य भक्तः किं नाम दुष्करम् ॥ ८८ ७ - इति राज्ञो वचः श्रुत्वा बाणः प्राहा तिसाहसात् । हस्तौ पादौ च संच्छिद्य चंडिका वास पृष्ठत ॥ ९६ ८ - उक्त्वा चेवं कृते राज्ञा चंडि स्तोतु प्रचक्रमे । बाणकाव्यैरतिश्रव्यै रुदामाक्षरडंबरे ॥ १०४
ततश्च प्रथमे वृत्त निर्वृते सप्तमेऽक्षरै । समाधौ तन्मुखी भूत्वा देवी प्राह वरं वृणु ॥ १०५ विदेहि पाणि पांद में इत्युक्ति सभने तरम् । संपूर्ण वयवे शोभा प्रत्यग्र इव निज्जरः ॥ १०६ ९ - बादेवी मूल मूर्तिस्था यत्रास्ते तत्र गम्यताम् । उभाभ्यामपि काश्मीर निर्वृत्ति प्रवरे पुरे ॥ १०९ १२ तत्र गत्वा पुरो मन्त्री गुरु नानम्य चावदत्त ! आह्वाययतिवात्सल्या भूपपादोऽवधार्यताम् !! १२७
११ तौ भूपालः स्तुवन्नित्य ममतयं चान्यदा जगौ । प्रत्यक्षोतिशयो भूमिदेवानामेव दृश्यते ॥ १२२ कुत्रापि दर्शनेन्यस्मिन् कथमस्ति प्रजल्पतः । प्राह मंत्री यदि स्वामी सृणोति प्रोच्यते ततः ॥ १२३ जैन श्वेतांबराचार्यो मानतुंगा मिधः सुधीः । महा प्रभाव संपन्नो विद्यते ताव के पुरे ॥ १२४ चेत्कुतल मंत्रास्ति तदाहयत तं गुरुम। चित्रों वो यादृशं कार्य तादृंश पूर्यते तथा ॥ ११५ कियान् ॥ १२६
भवार्थि नाम् !! १२८
इत्याकर्ण्य नृपः प्राह तं सत्पात्र समानय । सन्मान पूर्व मेतेषां निस्पृहाणां नृप गुरु राह महामात्य राज्ञानः किं प्रयोजनम् ! निरीहाणामियं भूमिर्नहि प्रेत्य मंत्रिणोचे प्रभो श्रेष्टा भावनात्ः प्रभावना ! प्रभाव्यं शासनं पूज्यैस्तद्राज्ञो रंगतो भवेत् !! १२९ इति निर्बंधतस्तस्य श्रीमानतुरंग सूरयः ! राज सौधंसमाजग्मुरभ्युत्तस्थचभूपतिः !! १३० धर्मलाभाशिषं दत्वा निविष्टाउचितासने ! नृपःप्रहद्विजन्मानः कीदृक् सातिशयाः क्षितौ !! १३१ एकेन सूर्यमाराध्य स्वांगाद्रोगोवियोजितः ! अपरचंडिका सेवावशालेभेकरक्रमौ !! १३२ भवतामपि शक्तिचेत्काप्यस्तियतिनायकाः ! तदाकंचिच्च मत्कारं पूज्यादर्शयताधुना !! १३३ इत्याकर्ण्यथिते प्राहुर्नगृहस्था वयंनृप ! धनधान्य गृह क्षेत्र कलत्रा पत्य हेतवे !! १३४
कश्मीर की सरस्वतीदेवी ]
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