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वि० सं० २८२-२९८ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पराजय का फैसला मिला! फिर वहाँ से वापिस बनारस आये पूर्व की हुई शर्त के अनुसार मयूर ने अपने बनाये सब ग्रन्थ राज सभा में लाकर अपने हाथों से जला दिये पर भस्म जब तक उड़ी तब तक उसमें सूर्य की किरणों से अक्षर दिखाई देते थे ! इससे राजा ने मयूर को सन्मानित किया और दोनों पण्डितों को सन्मान पूर्वक राज सभा में रखा।
____एक समय राजा अपनी राजसभा को कहने लगा कि इस समय जैसा प्रभाव ब्राह्मणों में है वैसा किसी अन्य धर्मियों में देखने में नहीं आता है ? ११इस पर एक मन्त्री ने कहा कि 'बहुरत्नावसुन्धरा' जैसे ब्राह्मणों में चमत्कार है वैसे अन्य धर्मियों में भी बहुत से प्रभाविक पुरुष विद्यमान है दूर क्यों पर अापके हो नगर में एक मानतुंग नाम का जैनाचार्य महान विद्वान और अनेक अतिशय चमत्कारों से सुशोभित है। राजा ने कहा यदि ऐसा है तो जैनाचार्य को सभा में लावो ? मंत्री ने कहा हजूर वे निम्रन्थ निस्पृही यति है केवल हाजरी भरने को एवं आर्शीवाद देने को ब्राह्मणों की मुआफिक नहीं आते है हां यदि आप आमन्त्रण भेज कर बुलावे तो धर्मोपदेश देने को वे आ सकते है । राजा ने मंत्री का कहना स्वीकार कर मंत्री के साथ आपने योग पुरुषों को मानतुंगसूरि के पास भेजा! मंत्री ने सूरिजी को वन्दन कर राज सभा में पधारने की प्रार्थना की। इस पर सूरिजी ने कहा मंत्री ! हम निस्पृहीयों को राजा से क्या लेना है जो कि हम राजसभा में चलें ? मंत्री ने कहा ''गुरु महाराज आप निग्रन्थ है आपको राजा से कुछ भी
राजरजनविद्यार्लोिकाक्षेपादिका क्रिया ! यद्विदध्मः परं कार्यः शासनोस्कर्ष एव नः !! १३५ इत्युक्त प्राह भूपालो निगडैरेपयंत्र्येताम् ! भापादमस्तकं ध्वाँ ते निवेश्षप्रवदन्निति !! १३६ ततोऽपवरके राजपुरुषेःपरुष स्खदा ! निगडैश्चचतुश्चत्वारिंशत्संख्यैरयोमयैः !! १३७ नियंत्रितः समुत्पाद्य लोह यंत्र समो गुरूः ! न्यवेश्यताथ तद्वारारी च पिहितौ ततः !! १३८ अति जीर्ण सनाराचं तालकं प्रददुस्ततः ! सूचि मेद्य तमस्कोंडः स पाताल निभो बभौ : !! १३९ वृत्त भक्तामर इति प्रख्यं प्रहैक मानसः ! ब्रट् कृत्य निगडं तत्र त्रुटित्वा पपे तितत्क्षणात् !! १४० प्राक संख्यया च वृत्तेपुभणते द्रुतं ततः ! श्रीमानतुपुगंसूरिश्च मुल्कलो मुन्कलो भवत् !! १४१ स्वयं मुद्ध टिते द्वार यंत्रे संयम संयत ! सदानुच्छंखलः श्रीमानू नुच्छं खलवपूर्व भौ !! १४२ अंतः संसदमागत्य धर्मलाभं नृप ददौ ! प्रातः पर्वांचलान्निर्यन्भास्वानिवमहाद्यति !! १४३ नृप प्राह शमस्ताहक भक्तिचाप्यति मानुषी! देव देवी कृताधारं बिना कस्यं दृशं महः !! १४४ देशः पुरमहंः धन्यः कृत पुण्यश्च वासरः ! यत्र ते वदनं प्रैक्षि प्रभो प्रातिभ संन्निभम !! १४५ आदेश सुकृता वेशं प्रयच्छ स्वच्छता निधे ! आजन्म रक्षा दक्षः स्याद्यथा मे स्वदनुग्रह !! १४६ श्रतवेति भपते वाचं प्राहस्ते यद किंचनांः ! लक्ष्मी ना मपयोगं च कुत्राप्पथै बिदध्महे !! १४७ परंश्रीमन्गुणांभोधे प्रशाधि वसुधा मिमाम् ! जैनधर्म हताक्षेमं परिक्ष्यं परिपालय !! १४८ अथोचोचन्महीपाल: पंथोजैनातेपथिः ! अदर्शनादिकालं पूज्यानां वंचिता वयम् !! १४९ अहोममावलेपो ऽ भूद्ब्राह्मणा एव सत्कलाः ! देवान्संतोष्वयैः स्वीयोदर्शितः प्रत्ययो ममः !! १५० विवदानावहंकारान्तावुपरत क्वचित् ! दर्पायैव न बोधाय या विद्या सा मति भ्रमः !! १५१ येषां प्रभावः सर्वाति शायी प्रशम् ईदृश ! संतोषश्च तदा ख्यातो धर्मः शुद्धः परिक्षया !! १५२ दीन पात्रोचिती भेदा त्रिधा दान रुचिभर्च ! जीर्णान्युद्धर चैत्यानि बिबिंनि च विधापय !! १७५ द्वेधा गुणा करं शिष्यं पदे स्वीये निवेश्य च!इंगिनी मथ संप्राप्या न शनी दिवमभ्यगात् !! १६७
[जैनाचार्य का चमत्कार की परीक्षा
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