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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६८२-६९८
नहीं लेना है पर राजा को धर्मोपदेश देना तो आपका कर्तव्य है अतः आप धर्मोपदेश देने को भी पधारिये दूसरे राजा का दिल में यह भी भ्रम है कि विश्व में सिवाय ब्राह्मणों के और कोई प्रभाविक पुरुष है ही नहीं राजा ने अपने इन पुरुषों को आमन्त्रण के लिये मेरे साथ भेजे हैं इत्यादि । सूरिजी ने मंत्री की प्रार्थना स्वीकार कर उनके साथ राज सभा में आये । राजा ने सिंहासन छोड़ सूरिजी का सत्कार किया और प्रार्थना की कि जैसे ब्राह्मण लोग देवताओं की भागधना कर अपना रोग मिटाते है काटे हुए हाथ पैर पुनः बना देते है वैसे आप भी किसी प्रकार का चमत्कार दीखा सकते हो ? यदि आपके अन्दर कुछ प्रभाव हो तो कृपा कर इस सभा के सामने बतलाइये ? आचार्यश्री ने उत्तर देते हुए कहा कि हे राजन् ! हम न तो गृहस्थ हैं और न गृहस्थों के करने योग्य कार्य ही करते है न हमें धन माल भूमि वगैरह की गरज है फिर अनेक प्रारंभ सारंभ करने वाले राजा को धन धान्य पुत्र कलित्र प्राप्ती रूप आशीर्वाद देकर खुश करने में क्या लाभ है इत्यादि सूरिजी ने निरस एवं निस्पृहिता से सत्य २ कह सुनाया कारण सूरिजी को राजा की खुशामदी से कोई भी प्रयोजन नहीं था पर कहा जाता है कि 'सच्च कहने से मां भी माथे में देती है' राजा एक दम नाराज होकर अपने अनुचरों को हुक्म देदिया कि इस जैन सेवड़ो को लोहा की ४४ साकलों से मकड़ के बान्ध लो और अन्धेरी कोठरी में डाल दो और उसके द्वार पर एक जर्बदस्त ताला लगादो तथा पक्के पहरे भी लगा दो ! अनुचरों ने ऐसा ही करके आचार्य को अन्धेरी कोठड़ी में डाल कर पेहरा लगा दिया । विचारा मंत्री का मुंह फीका पड़ गया और ब्राह्मणों का नुर तो नौ गज चढ़ गया।
___आचार्यश्री ने बिलकुल फिक्र नहीं किया पर इतना जरूर सोचा कि इस कारण से जैन धर्म की निंदा कर अज्ञानी जीव कर्म बान्ध कर बैठेंगे । उन्होंने भगवान आदीश्वरजी का स्तोत्र भक्तामर बनना शुरु किया जिसका एक २ श्लोक बनाते गये और एक २ शांकल टूटती गई इस प्रकार ४४ काव्य बनाने से ४४ शांकलें टूट पड़ी और चार श्लोकों से कोटरी के ताले टूट पड़े और स्वयं कपाट खुल गये ? बस ! सूरिजी सीधे ही राज सभा में आकर राजा को धर्मलाभ दिया जिसको देख राजा आश्चर्य में डूब गया कि मेरी नजरों के सामने जिस को ४४ लोहा की शांकलों से जकड़ कर अन्धेरी कोठरी में डाल दिया जिसके ताले की चाबी मेरे पास पड़ी है फिर बन्धन मुक्त होकर महात्माजी कैसे आगये । सत्य है कि यह कोई अलौकीक महात्मा है जिनके लिये ब्राह्मणों की भाँति किसी देव को आराधना की भी आवश्यकता नहीं पड़ी और ब्राह्मण चमत्कारी होने पर भी बड़े ही अभिमानी हैं और पापस में बड़े बनने की बड़ी भावना रही हुई है पर यहां तो न देखा लोभ न देखा बड़ा ही का अभिमान और न देखा खुशामदी का काम ? अतः राजा ने सूरिजी की अच्छे २ शब्दो में खूब प्रशंसा की पर सूरिजी के लिये तो तिस्कार और सत्कार एकसा ही दीखाई दे रहा था।
राजा ने नम्रता के साथ सूरिजी से प्रार्थना की कि प्रभो ? मैं आपके अलौकिक अतिशय प्रभाव से प्रसन्न हुआ हूँ । कृपा कर आप कुछ हुक्म फरमाबे कि मैं आपके चरणों में भेट कर कृतार्थ बनु ? सूरिजी ने कहा राजन् ! हम योगियों को क्या चाहिये हम न भूमि मकान रखते हैं और किसी काम में लक्ष्मी का उपयोग करते हैं यदि आप की ऐसी ही इच्छा हो तो श्राप जैन धर्म के स्वरूप को सुन एवं समझ कर आत्म कल्याणार्थ जैनधर्म को स्वीकार करे कि जिससे आपका इस भव और परभव में जल्दी कल्याण हो । राजा ने सूरिजी के मुखाबिन्द से स्याद्वाद सिद्धान्त और अहिंसा परमोधर्म को सुनकर जैनधर्म को स्वीकार कर
मानतुंगसरि और भक्ताम्बर स्तोत्र ]
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