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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५८
प्राचार्य-जगदम्बा अर्थात् जगत की माता, क्या माता अपने बालकों का रक्षण करती है या भक्षण?
जंगली-तुम क्या समझते हो ? यह भक्षण नहीं है पर जिसकी बलि दी जाती है वह सदेह स्वर्ग में जाकर सदैव के लिये अमर बन जाता है ।
प्राचार्य -- तो क्या आप लोग सदैव के लिये अमर बनना नहीं चाहते हो ? जो इस नवयुवक को अमर बना रहे हो।
जंगली-देवी की कृपा इस पर ही हुई है। श्राचार्य --- क्या आप पर देवी की कृपा नहीं है ? जंगली --देवी की कृपा तो सम्पूर्ण विश्व पर है। श्राचार्य-तो फिर एक इस तरुण की ही बलि क्यों ? जंगली-बकवाद मत करो, तुम अपने रास्ते जाओ।
श्राचार्य -- भद्रो ! तुम इस निष्ठुर कर्म को त्याग दो, इस घृणित कर्म से देवी खुश नहीं होगी, परन्तु भवान्तर में तुमको इसका बड़ा भारी बदला देना पड़ेगा।
जंगली-कह दिया कि तुम अपना रास्ता पकड़ो। आचार्य-लो हम यहां आपके पास में ही खड़े हैं, देखें तुम इस नवयुवक के लिये क्या करते हो ?
जंगली ने युवक पर कुठार चलाना प्रारम्भ किया पर सूरिजी महाराज के तप तेज से न जाने उसका हाथ क्यों रुक गया कि अनेक प्रयत्न करने पर भी वह अपने हाथ को नीचा तक भी नहीं कर सका। इस अतिशय प्रभाव को देख सब लोग विमुग्ध बन गये और आचार्यश्री के सामने देखने लगे कि यह क्या बलाय है ? आचार्यश्री ने फरमाया कि भव्यो ! देवी-देवता हमेशा उत्तम पदार्थों के भोक्ता हैं न कि ऐसे घृणित पदार्थों के । यह तो किसी मांसभक्षी पाखण्डियों ने देवी देवताओं के नाम से कुप्रथा प्रचलित की है
और इससे शान्ति नहीं पर एक महान् अशान्ति फैलती है। इतना ही नहीं पर इस महान् पाप का बदला नरक में जाकर देना पड़ेगा, इस वास्ते पाप कार्य का त्याग कर दो। अगर तुमको देवी का ही क्षोभ हो तो लो, देवी की जुम्मेवारी में अपने शिर पर लेता हूँ। आप इन भैंसे, बकरों और युवक को शीघ्र छोड़ दो। कारण, जैसे तुमको अपने प्राण प्यारे हैं वैसे इनको भी अपना जीवन वल्लभ है । जगत में छोटे से छोटे और दुःखी से दुःखी जीव सब जीवित रहना चाहते हैं, मरना सबको प्रतिकूल है। किसी जीव को तकलीफ देना भी नरक का कारण होता है तो ऐसी महान् घोर रुद्र हिंसा का तो पूछना ही क्या ? मैं आपको ठीक हितकारी शिक्षा देता हूँ कि आप अपना भला अर्थात् कल्याण चाहते हैं तो इस पापमय हिंसा का त्याग करो । जंगली टीग २ नेत्रों से सूरिजी के सामने देखते हुये चुपचाप रहे, कारण चिरकाल से पड़ी हुई कुरुदी का एकदम त्याग करना उन अज्ञानी लोगों के लिये एक बड़ी मुश्किल की बात थी, तथापि सूरिजी महाराज का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि वे कुछ बोल नहीं सके । १-एकदा विहरन सूरि स्त्यक्त मार्ग: सुविस्मिाः । देव्यालयं गतस्तत्र ददशे च नृपात्मजम् ॥ देवगुप्त मनाय्यस्तु, बलिं देव्यै समर्पितम् । तदारक्षच्च सूरिस्त मनार्यान् सं प्रबोध्य च ॥ सरितो लब्ध दीक्षस्तु, देवगुप्तोऽभवन्मुनिः । गुरु कृपा प्राप्त ज्ञानः शरणोल्लीढ़ इवाऽशनिः ।
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