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वि० सं० ११५-१५७ वर्षे ] |
भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
विक्रम संवत के आसपास राजा रतिदेव ने अन्तिम अश्वमेघ यज्ञ किया था इसके बाद अश्वमेध जैसा यज्ञ नहीं हुआ था विक्रम की नौवीं शताब्दी में कुमारिलभट्ट और आद्य शंकराचार्य हुए उन्होंने सोचा कि एक
ओर तो जैनों और बौद्धों का जोर बढ़ता जा रहा है दूसरी ओर जनता हिंसा ले घृणा कर वेदिक धर्म से परङ्गमुख होकर जैन एवं बौध मत में जा रही है अतः उन्होंने फरमान निकाला कि कलियुग में यज्ञ करने की मनाई है तथापि जहां ब्राह्मणों की प्रबल्यता और वाममार्गियों का जोर था वहां छाने छुपके छोटा बड़ा साधारण यज्ञ करवा देते थे कारण उन्हों की आजीविका ही इस प्रकार यज्ञयाग और क्रियाकाण्ड से ही थी अतः समय मिलने पर वे कब चूकने वाले थे।
वघेरा नगर में राजा व्याघ्रसिंह राज करता था किसी बहाने से ब्राह्मणों ने राजा को उपदेश देकर यज्ञ प्रारम्भ करवाया था यज्ञ में जितने लोग अधिक एकत्र होते थे उतना ही ब्राह्मणों को अधिक लाभ था अतः ५६ ग्रामों के लोग यज्ञ के अन्दर शामिल हुए।
धर दिगम्बराचार्य जिनसेन अपने शिष्यों के साथ वघेरा नगर के उद्यान में पधारे प्राचार्य जिनसेन ने पहले खंडेला के यज्ञ के समय सफलता प्राप्त की हुई थी वे चलकर सीधे ही राज सभा में आये और राजा व्यावसिंह को उपदेश देते हुए कहा । राजन् ! इस घोर हिंसा रूपी यज्ञ से न तो किसी को लाभ हुआ है और न होनेवाला है हिंसा का फल तो भवान्तर में नरक ही होता है केवल एक हम ही नहीं कहते हैं पर वैदिक धर्म को मानने वालों ने भी हिंसा का बड़े ही जोरों से तिरस्कार किया है-पर बड़े ही दुःख की बात है कि आज भारत के कौने २ में अहिंसा का प्रचार हो रहा है इतना ही क्यों पर कहलाने वाल अनार्य भी अहिंसा भगवती का आदर कर रहे हैं तब आप जैसे आर्य वीर क्षत्री इस प्रकार की रौद्र हिंसा करवा कर देश द्रोह के साथ आत्मद्रोह कर रहे हो इत्यादि इस प्रकार का उपदेश दिया कि राजा को उस निर्दय कार्य से घृणा आ गई बस फिर तो देरी ही क्या थी राजा ने यज्ञ स्तम्भ उखेड़ दिया कुण्ड मिट्टी से पूर दिया ब्राह्मणों को विसर्जन कर दिये और राजा स्वयं बावन ग्रामों वालों के साथ आचार्य जिनसेन के पास जैनधर्म स्वीकार कर लिया उन बावन प्रामों वालों के बावन गोत्र बन गये वे निम्? लिखित हैं।
___अंगोरिया आहिडारे उंकारा३ उदपाडा कोटिया५ कावरिया६ कुचालिया७ कुनडा८ खडवाट९ खसोरा. खरड़िया ११ गुगाला३२ घणोता१३ चुन्दलिया१४ चकोरा५ छाजा छाबडा ७ चमोरा १८ चमारा१९ जाठाणी २:: तालहडा२१ दीवडा२२ दोगरचा२३ दोहताडा ४ धनोत्या२५ धौल्या२६ गर्बल २७ सीलोसो२८ सौरया६९ सुरलाया३० बहरिया३१ ठागा३२ लुंगरवाल३३ पापला३४ सांभारिवा३५ सडिया३६ मादलिया३७ डाइया३८ निगोलिया३९ अवेपुरा४ माथुरिया४। जोगिया २ लावावास४३ साखुणिया४४ सवघरा४५ सिवड४६ सोढ़ा४७ वाघडिया४८ भाडारिया४९ वडमुढ़ा५० जोगिया५१ डाइया५२ इनके अलावा इन जातियों की कई शाखा प्रतिशाखा भी हुई हैं, पीसांगण के एक सरावगी भाई के पास पुरानी हस्तलिखित पुस्तक से इस प्रकार ५२ जातियों के नाम उतारे हैं उसके कहने से वघेरवाल की १०५ गोत हैं।
इसी प्रकार दिगम्बर समुदाय में नरसिंघपुरा जाति है यह भी नरसिंहपुर में यज्ञ के कारण दिगम्बराचार्य ने प्रतिबोध कर जैनधर्म में दीक्षित किये जिसके कई गौत्र हैं पीसांगण वाली पुस्तक में इस जाति के ३६ गोत्र लिखे हुये हैं।
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